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________________ 164 भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन लोकसंग्रह गीता के अनिवार्य तत्त्व हैं, अतः कहा जा सकता है कि गीता विधेयात्मकनैतिकता की समर्थक है, यद्यपि वह विधान के लिए अनासक्तिरूपी निषेधक-तत्त्व को भी आवश्यक मानती है। व्यक्तिपरक बनाम समाजपरक-नीतिशास्त्र निवृत्ति और प्रवृत्ति के विषय में एक विचार-दृष्टि यह भी है कि जो आचार-दर्शन व्यक्तिपरक-नीतिशास्त्र का प्रतिपादन करते हैं, वे निवृत्तिपरक हैं और जो आचार-दर्शन समाजपरक-नीतिशास्त्र का प्रतिपादन करते हैं, वे प्रवृत्तिपरक हैं, किन्तु यह स्पष्ट है कि जो आचार-दर्शन भोगवाद में व्यक्तिपरक (स्वार्थ-सुखवादी) दृष्टि रखते हैं, वे निवृत्तिपरक नहीं माने जा सकते। संक्षेप में, जो लोक-कल्याण को प्रमुखता देते हैं, वे प्रवृत्तिमार्गी कहे जाते हैं तथा जो आचार-दर्शन वैयक्तिक-आत्मकल्याण को प्रमुखता देते हैं, वे निवृत्तिमार्गी कहे जाते हैं। पं. सुखलालजी लिखते हैं, प्रवर्तक-धर्म का संक्षेप सार यह है कि जो और जैसी समाज-व्यवस्था हो, उसे इस तरह नियम और कर्त्तव्यबद्ध बनाना कि जिससे समाज का प्रत्येक सदस्य अपनी-अपनी स्थिति और कक्षा में सुखलाभ करे । प्रवर्तक-धर्म का उद्देश्य समाज-व्यवस्था के साथ-साथ जन्मान्तर का सुधार करना है। प्रवर्तक-धर्म समाजगामी था, इसका मतलब यह था कि प्रत्येक व्यक्ति समाज में रहकर ही सामाजिककर्त्तव्य (जो ऐहिक-जीवन से सम्बन्ध रखते हैं) और धार्मिक-कर्त्तव्य (जो पारलौकिकजीवन से सम्बन्ध रखते हैं) का पालन करे । व्यक्ति को सामाजिक और धार्मिक-कर्तव्यों का पालन करके अपनी कृपण इच्छा का संशोधन करना इष्ट है, पर उस (सुख की इच्छा) का निर्मूल नाश करना न शक्य है और न इष्ट । प्रवर्तक-धर्म के अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति के लिए गृहस्थाश्रम जरूरी है। उसे लाँघकर कोई विकास नहीं कर सकता। निवर्तक-धर्म व्यक्तिगामी है। वह आत्मसाक्षात्कार की उत्कृष्ट वृत्ति से उत्पन्न होने के कारण जिज्ञासुको - आत्मतत्त्व है या नहीं ? है तो कैसा है ? क्या उसका साक्षात्कार संभव है ? और है, तो किन उपायों से संभव है ? - इन प्रश्नों की ओर प्रेरित करता है। ये प्रश्न ऐसे नहीं हैं कि जो एकान्त, चिन्तन, ध्यान, तप और असंगतापूर्ण जीवन के सिवाय सुलझ सकें। ऐसा सच्चा जीवन खास व्यक्तियों के लिए ही सम्भव हो सकता है। उनका समाजमागी होना सम्भव नहीं।..... अतएव निवर्तक-धर्म समस्त सामाजिक और धार्मिक-कर्त्तव्यों से बद्ध होने की बात नहीं मानता। उसके अनुसार, व्यक्ति के लिए मुख्य कर्त्तव्य एक ही है और वह यह कि जिस तरह हो, आत्म-साक्षात्कार का और उसमें रुकावट डालने वाली इच्छा के नाश का प्रयत्न करे। भारतीय-चिन्तन में नैतिक-दर्शन की समाजगामी एवं व्यक्तिगामी-यह दो विधाएँ तो अवश्य रही हैं, परन्तु इनमें कभी भी आत्यन्तिक-विभेद स्वीकार किया गया हो-ऐसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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