SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 165
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निवृत्तिमार्ग और प्रवृत्तिमार्ग 163 निषेध के आधार पर किया हुआ विधान ही आचरण को समुज्ज्वल बना सकता है। निषेधात्मक नैतिक-आदेश नैतिक-जीवन के सुन्दर चित्र-निर्माण के लिए एक सुन्दर, स्वच्छ एवं समपार्श्वभूमि प्रदान करते हैं, जिस पर विधिमूलक नैतिक-आदेशों की तूलिका उस सुन्दर चित्र का निर्माण कर पाती है। निषेध के द्वारा प्रस्तुत स्वच्छ एवं समपार्श्वभूमिही विधि के चित्र को सौन्दर्य प्रदान कर सकती है। संक्षेप में, जैन आचार-दर्शन की नैतिकता अपने बाह्य-रूप में निषेधात्मक प्रतीत होती है, लेकिन इस निषेध में भी विधेयकता छिपी है। यही नहीं, जैनागमों में अनेक विधिपरक आदेश भी मिलते हैं। . जैन आचार-दर्शन में विधि-निषेधका यथार्थ स्वरूप क्या है ? इसे पं. सुखलालजी ने इन शब्दों में व्यक्त किया है-जैनधर्म प्रथम तो दोष-विरमण (निषेधया त्याग) रूपशीलविधान करता है (अर्थात् निषेधात्मक-नैतिकता प्रस्तुत करता है), परन्तु चेतना और पुरुषार्थ ऐसे नहीं हैं कि वे मात्र अमुक दिशा में निष्क्रिय होकर पड़े रहें। वे तो अपने विकास की भूख दूर करने के लिए गति की दिशा ढूँढते ही रहते हैं, इसलिए जैनधर्म ने निवृत्ति के साथ ही शुद्ध प्रवृत्ति (विहित आचरणरूप चारित्र) के विधान भी किए हैं । उसने कहा है कि मलिन वृत्ति से आत्मा का घात न होने देनाऔर उसके रक्षण में ही (स्वदया में ही) बुद्धि और पुरुषार्थ का उपयोग करना चाहिए। प्रवृत्ति के इस विधान में से ही सत्य-भाषण, ब्रह्मचर्य, सन्तोष आदि विविध मार्ग निष्पन्न होते हैं। बौद्ध-दृष्टिकोण-बौद्ध आचार-दर्शन में निषेधात्मक-नैतिकता का स्वर मुखर हुआ है। भगवान् महावीर के समान भगवान् बुद्ध ने भी नैतिक-जीवन के लिए अनेक निषेधात्मक-नियमों का प्रतिपादन किया है, लेकिन केवल इस आधार पर बौद्ध आचार-- दर्शन को निषेधात्मक-नीतिशास्त्र नहीं कह सकते। बुद्ध ने आचरण के क्षेत्र में निषेध के नियमों पर बल अवश्य दिया है, फिर भी बौद्ध आचार-दर्शनको निषेधात्मक नहीं माना जा सकता। बुद्ध ने गृहस्थ-उपासकों और भिक्षुओं-दोनों के लिए अनेक विधेयात्मक-कर्त्तव्यों का विधान भी किया है, जिनमें पारस्परिक-सहयोग, लोक-मंगल के कर्त्तव्य सम्मिलित हैं। लोक-मंगल की साधना का स्वर बुद्ध का मूलस्वर है। ___ गीताका दृष्टिकोण-गीता के आचार-दर्शन में तो निषेध की अपेक्षा विधान का स्वर ही अधिक प्रबल है। गीता का मूलभूत दृष्टिकोण विधेयात्मक-नैतिकता का है। श्रीकृष्ण यह स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि यद्यपि मानसिक-शान्ति और मन की साम्यावस्था के लिए विषय-वासनाओं से निवृत्त होना आवश्यक है, तथापि इसका अर्थ कर्त्तव्यमार्ग से बचना नहीं है। सामाजिक-क्षेत्र में हमारे जो भी उत्तरदायित्व हैं, उनका हमें अपने वर्णाश्रमधर्म के रूप में परिपालन अवश्य ही करना चाहिए। गीता के समग्र उपदेश का सार तो यही है कि अर्जुन अपने क्षात्रधर्म के कर्त्तव्यों का पालन करे । समाजसेवा के रूप में यज्ञ और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy