SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 164
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 162 भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन कुछ विचारकों की दृष्टि में निवृत्तिपरक हैं और जो आचार-दर्शन विधेयात्मक-नैतिकता को प्रकट करते हैं, वे प्रवृत्तिपरक हैं। इस अर्थ में विवेच्य आचार-दर्शनों में कोई भी आचार-दर्शन एकान्त रूप से न तो निवृत्तिपरक है, न प्रवृत्तिपरक । प्रत्येक निषेध का एक विधेयात्मक-पक्ष होता है और प्रत्येक विधेय का एक निषेध-पक्ष होता है। जहाँ तक जैन, बौद्ध और गीता के आचार-दर्शनों की बात है, सभी में नैतिक-आचरण के विधि-निषेध के सूत्र ताने-बाने के रूप में एक-दूसरे से मिले हुए हैं। जैन-दृष्टिकोण-यदि हम जैन आचार-दर्शन के नैतिक-ढाँचे को साधारण दृष्टि से देखें, तो हमें हर कहीं निषेधका स्वरही सुनाई देता है, जैसे-हिंसा न करो, झूठ न बोलो, चोरी न करो, व्यभिचार न करो, संग्रह न करो, क्रोध न करो, लोभ न करो, अभिमान न करो। इस प्रकार, सभी दिशाओं में निषेध की दीवारें खड़ी हुई हैं। वह मात्र नहीं करने के लिए कहता है, करने के लिए कुछ नहीं कहता। यही कारण है कि सामान्य जन उसे निवृत्तिपरक कह देता है, लेकिन यदि गहराई से विचार करें, तो ज्ञात होगा कि यह धारणा सर्वांश सत्य नहीं है। उपाध्याय अमरमुनिजी जैन आचार-दर्शन के निषेधक-सूत्रों का हार्द प्रकट करते हुए लिखते हैं कि यह सत्य है कि जैन-दर्शन ने निवृत्ति का उच्चतम आदर्श प्रस्तुत किया है, उसके प्रत्येक चित्र में निवृत्ति का रंग भरा हुआ है, किन्तु दृष्टि जरा साफ हो, स्वच्छ और तीक्ष्ण हो, तो उसके रंगों का विश्लेषण करने पर यह समझा जा सकता है कि निषेधक-सूत्रों की कहाँ, क्या उपयोगिता है, निवृत्ति के स्वर में क्या मूल भावनाएँ ध्वनित हैं? जैन-दर्शन एक बात कहता है कि यह देखो कि तुम्हारी प्रवृत्ति निवृत्तिमूलक है या नहीं। तुम दान कर रहे हो, दीन-दुःखियों की सेवा के नाम पर कुछ पैसा लुटा रहे हो, किन्तु दूसरी ओर यदिशोषण का कुचक्र भी चल रहा है, तो इस दान और सेवा का क्या अर्थ है ? सौसौ घाव करके एक-दो घावों की मरहम-पट्टी करना सेवा का कौनसा आदर्श है ?47 वास्तविकता यह है कि आचरण के मूल में यदि निवृत्ति नहीं है, तो प्रवृत्तिका भी कोई अर्थ नहीं रहता है। प्रवृत्ति के मूल में निवृत्ति आवश्यक है। सेवा, परोपकार, दान आदि सभी नैतिक-विधानों के पीछे अनासक्ति एवं स्वहित के परित्याग के निषेधात्मक-स्वरों का होना आवश्यक है, अन्यथा नैतिक-जीवन की सुमधुरता एवं समस्वरता नष्ट हो जाएगी। निषेध के अभाव में विधेय भी अर्थहीन है। विधान के पूर्व प्रस्तुत निषेध ही उस विधान को सच्ची यथार्थता प्रदान करता है । सेवा, परोपकार, दान के सभी नैतिक विधि-आदेशों के पीछे झंकृत हो रहे निषेधक-स्वर के अभाव में उन विधि-आदेशों का मूल्य शून्य हो जाएगा, नैतिकता की दृष्टि से उनका कोई अर्थ ही नहीं रहेगा। जैन आचार-दर्शन में यत्रतत्र सर्वत्र जो निषेध के स्वर सुनाई देते हैं, उनके पीछे मूल भावना यही है। उसके अनुसार, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy