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________________ निवृत्तिमार्ग और प्रवृत्तिमार्ग 161 होता है, जंगल के पेड़ों से गिरे फल-मूल खाने वाला भी होता है। वह सन के कपड़े भी धारण करता है, कुश का बना वस्त्र भी पहनता है, छाल का वस्त्र भी पहनता है, फलक (छाल) का वस्त्र भी पहनता है, उल्लू के परों का बना वस्त्र भी पहनता है। वह केश-दाढ़ी का लुंचन करने वाला भी होता है। वह बैठने का त्याग कर निरन्तर खड़ा ही रहने वाला भी होता है। वह उकडूं बैठकर प्रयत्न करने वाला भी होता है, वह काँटों की शैय्या पर सोनेवाला भी होता है। प्रातः, मध्याह्न, सायं दिन में तीन बार पानी में जानेवाला होता है। इस तरह वह नाना प्रकार से शरीर को कष्ट या पीड़ा पहुँचाता हुआ विहार करता है। भिक्षुओं! यह कठोर मार्ग कहलाता है। भिक्षुओं! मध्यममार्ग कौनसा है ? भिक्षुओं! भिक्षु शरीर के प्रति जागरुक रहकर विचरता है। वह प्रयत्नशील, ज्ञानयुक्त स्मृतिमान् हो, लोक में जो लोभ, वैर, दौर्मनस्य हैं, उसे हटाकर विहरता है, वेदनाओं के प्रति.... चित्त के प्रति .... धर्मों के प्रति जागरूक रहकर विचरता है। वह प्रयत्न-शील, ज्ञान-युक्त, स्मृति-मान् हो, लोक में जो लोभ और दौर्मनस्य है, उसे हटाकर विहरता है। भिक्षुओं! यह मध्यममार्ग कहलाता है। भिक्षुओं! ये तीन मार्ग हैं। बुद्ध कठोरमार्ग (देह-दण्डन) और शिथिलमार्ग (भोगवाद)-दोनों को ही अस्वीकार करते हैं। बुद्ध के अनुसार यथार्थ नैतिक-जीवन का मार्ग मध्यम-मार्ग है। उदान में भी बुद्ध अपने इसी दृष्टिकोण को प्रस्तुत करते हुए कहते हैं, 'ब्रह्मचर्य (संन्यास) के साथ व्रतों का पालन करना ही सार है-यह एक अन्त है। कामभोगों के सेवन में कोई दोष नहीं यह दूसरा अन्त है। इन दोनों प्रकार के अन्तों के सेवन से संस्कारों की वृद्धि होती है और मिथ्या धारणा बढ़ती है। 44 इस प्रकार, बुद्ध अपने मध्यममार्गीय-दृष्टिकोण के आधार पर वैराग्यवादऔर भोगवाद में यथार्थ समन्वय स्थापित करते हैं। ___ गीता का दृष्टिकोण - गीता का अनासक्तिमूलक कर्मयोग भी भोगवाद और वैराग्यवाद (देह-दण्डन) की समस्या का यथार्थ समाधान प्रस्तुत करता है। गीता भी वैराग्य की समर्थक है। गीता में अनेक स्थलों पर वैराग्यभाव का उपदेश है, 45 लेकिन गीता वैराग्य के नाम पर होने वाले देह-दण्डन की प्रक्रिया की विरोधी है। गीता में कहा है कि आग्रहपूर्वक शरीर को पीड़ा देने के लिए जो तप किया जाता है, वह तामस-तप है। 46 इस प्रकार, भोगवाद और वैराग्यवाद के सन्दर्भ में गीता भी समन्वयात्मक एवं सन्तुलित दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है। विधेयात्मक बनाम निषेधात्मक-नैतिकता निवृत्ति और प्रवृत्ति का विचार निषेधात्मक और विधेयात्मक-नैतिकता की दृष्टि से भी किया जा सकता है। जो आचार-दर्शन निषेधात्मक-नैतिकता को प्रकट करते हैं, वे Jain Education International For Private & Personal Use Only WW www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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