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निवृत्तिमार्ग और प्रवृत्तिमार्ग
वस्तुतः, समालोच्य आचार- दर्शनों का विकास भोगवाद और वैराग्यवाद के एकान्तिक - दोषों को दूर करने में ही हुआ है। इनका नैतिक-दर्शन वैराग्यवाद एवं भोगवाद की समन्वय - भूमिका में ही निखरता है। सभी का प्रयास यही रहा कि वैराग्यवाद के दोषों को दूर कर उसे किसी रूप में सन्तुलित बनाया जा सके। एकान्तिक - वैराग्यवाद ज्ञानशून्य देह - दण्डनमात्र बनकर रह जाता है, जबकि एकान्तिक - भोगवाद स्वार्थ- सुखवाद की ओर
जाता है, जिसमें समस्त सामाजिक एवं नैतिक मूल्य समाप्त हो जाते हैं। भोग एवं त्याग के मध्य यथार्थ समन्वय आवश्यक है और भारतीय-चिन्तन की यह विशेषता है कि उसने भोग व त्याग में वास्तविक समन्वय खोजा है। ईशावास्य उपनिषद् का ऋषि यह समन्वय का सूत्र देता है । वह कहता है – 'त्यागपूर्वक भोग करो, आसक्ति मत रखो।' 32
जैन - दृष्टिकोण - जैन- दर्शन वैराग्यवादी विचारधारा के सर्वाधिक निकट है, इसमें अत्युक्ति नहीं है । उत्तराध्ययनसूत्र में भोगवाद की समालोचना करते हुए कहा गया है कि काम - भोग शल्यरूप हैं, विषरूप हैं और आशिविष सर्प के समान हैं। काम- प-भोग की अभिलाषा करने वाले काम-भोगों का सेवन नहीं करते हुए भी दुर्गति में जाते हैं। 33 समस्त गीत विलापरूप हैं, सभी नृत्य विडम्बना है, सभी आभूषण भाररूप हैं और सभी काम - भोग दुःख-प्रदाता हैं । अज्ञानियों के लिए प्रिय, किन्तु अन्त में दुःख प्रदाता काम-१ -भोगों में वह सुख नहीं है, जो शील- गुण में रत रहने वाले तपोधनी भिक्षुओं को होता है । 34
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सूत्रकृतांग में कहा गया है, 'जब तक मनुष्य कामिनी और कांचन आदि जड़चेतन पदार्थों में आसक्ति रखता है, वह दुःखों से मुक्त नहीं हो सकता । '35' अन्त में पछताना न पड़े, इसलिए आत्मा को भोगों से छुड़ाकर अभी से ही अनुशासित करो, क्योंकि कामी मनुष्य अन्त में बहुत पछताते हैं और विलाप करते हैं । '36 'जिन्होंने काम भोग और पूजासत्कार (अहंकार - तुष्टि के प्रयासों) का त्याग कर दिया है, उन्होंने सब कुछ त्याग दिया है। ऐसे ही लोग मोक्षमार्ग में स्थिर रह सके हैं । '37 'बुद्धिमान् पुरुषों से मैने सुना है कि सुख-शीलता का त्याग करके, कामनाओं को शान्त करके निष्काम होना ही वीर का वीरत्व है । ' 38 'इसलिए साधक शब्द - स्पर्श आदि विषयों में अनासक्त रहे और निन्दित कर्म का आचरण नहीं करे, यही धर्म - सिद्धान्त का सार है, शेष सभी बातें धर्म- सिद्धान्त के बाहर हैं। 39
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फिर भी, उपर्युक्त वैराग्यवादी तथ्यों का अर्थ देह-दण्डन या आत्म-पीड़न नहीं है । जैन-वैराग्यवादी देह - दण्डन की उन सब प्रणालियों को, जो वैराग्य के सही अर्थों से दूर हैं, कतई स्वीकार नहीं करता। जैन आचार-दर्शन में साधना का सही अर्थ वासना - क्षय है, अनासक्त दृष्टि का विकास है, राग-द्वेष से ऊपर उठना है। उसकी दृष्टि में वैराग्य अन्तर की वस्तु है, उसे अन्तर में जाग्रत होना चाहिए। केवल शरीर - यंत्रणा या देह - दण्डन का जैन
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