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________________ सम्यक्-तप तथा योग-मार्ग 143 (अशुभ) वृत्तियों का निवारण एवं विधेयात्मक-दृष्टि से सभी कुशल (शुभ) वृत्तियों एवं क्रियाओं का सम्पादन तप' कहा जा सकता है। भारतीय-ऋषियों ने हमेशा तप को विराट् अर्थ में ही देखा है। यहाँ श्रद्धा, ज्ञान, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, आर्जव, मार्दव, क्षमा, संयम, समाधि, सत्य, स्वाध्याय, अध्ययन, सेवासत्कार आदि सभी शुभ गुणों को तप मान लिया गया है।57 ___अब जैन-परम्परा में स्वीकृत तप के भेदों के मूल्यांकन का किंचित् प्रयास किया जा रहा है। अनशन में कितनी शक्ति हो सकती है, इसे आज गाँधी-युग का हर व्यक्ति जानता है। हम तो उसके प्रत्यक्ष प्रयोग देख चुके हैं । सर्वोदय समाज-रचना तो उपवास के मूल्य को स्वीकार करती ही है, देश में उत्पन्न अन्न-संकट की समस्या ने भी इस ओर हमारा ध्यान आकर्षित किया है। इन सबके साथ आज चिकित्सक एवं वैज्ञानिक भी इनकी उपादेयता को सिद्ध कर चुके हैं । प्राकृतिक चिकित्सा-प्रणाली का तो मूल आधार ही उपवास है। इसी प्रकार, ऊनोदरी या भूख से कम भोजन, नियमित भोजन तथारस-परित्याग का भी स्वास्थ्य की दृष्टि से पर्याप्त मूल्य है, साथ ही यह संयम एवं इन्द्रियजय में भी सहायक है। गांधीजी ने तो इसी से प्रभावित हो ग्यारह व्रतों में अस्वाद-व्रत का विधान किया था। यद्यपि वर्तमान युग भिक्षा-वृत्ति को उचित नहीं मानता है, तथापि समाज-व्यवस्था की दृष्टि से इसका दूसरा पहलू भी है। जैन आचार-व्यवस्था में भिक्षावृत्ति के जो नियम प्रतिपादित हैं, वे अपने-आप में इतने सबल हैं कि भिक्षावृत्ति के सम्भावित दोषों का निराकरण स्वतः हो जाता है। भिक्षावृत्ति के लिए अहं का त्याग आवश्यक है और नैतिकदृष्टि से उसका कम मूल्य नहीं है।। इसी प्रकार, आसन-साधना और एकांतवास का योग-साधना की दृष्टि से मूल्य है। आसन योग-साधना का एक अनिवार्य अंग है। तप के आभ्यन्तर-भेदों में ध्यान और कायोत्सर्ग का भी साधनात्मक-मूल्य है। पुनः; स्वाध्याय, वैयावृत्य (सेवा) एवं विनय (अनुशासन) का तोसामाजिक एवं वैयक्तिकदोनों दृष्टियों से बड़ा महत्व है। सेवाभाव और अनुशासित जीवन-ये दोनों सभ्य समाज के आवश्यक गुण हैं। ईसाई-धर्म में तो इस सेवाभाव को काफी अधिक महत्व दिया गया है। आज उसके व्यापक प्रचार का एकमात्र कारण उसकी सेवा-भावना ही तो है। मनुष्य के लिए सेवाभाव एक आवश्यक तत्त्व है, जो अपने प्रारम्भिक-क्षेत्र में परिवार से प्रारम्भ होकर 'वसुधैव कुटुम्बकम्' तक का विशाल आदर्श प्रस्तुत करता है। स्वाध्याय का महत्व आध्यात्मिक-विकास और ज्ञानात्मक-विकास-दोनों दृष्टियों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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