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भारतीय आचार- दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
से है। एक ओर, वह स्व का अध्ययन है, तो दूसरी ओर, ज्ञान का अनुशीलन। ज्ञान और विज्ञान की सारी प्रगति के मूल में तो स्वाध्याय ही है ।
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प्रायश्चित्त एक प्रकार से अपराधी द्वारा स्वयाचित दण्ड है। यदि व्यक्ति में प्रायश्चित्त की भावना जाग्रत हो जाती है, तो उसका जीवन ही बदल जाता है। जिस समाज में ऐसे लोग हों, वह समाज तो आदर्श ही होगा।
वास्तव में तो तप के इन विभिन्न अंगों के इतने अधिक पहलू हैं कि जिनका समुचित मूल्यांकन सहज नहीं ।
तप आचरण में व्यक्त होता है। वह आचरण ही है। उसे शब्दों में व्यक्त करना सम्भव नहीं है। तप आत्मा की उषा है, जिसे शब्दों में बाँधा नहीं जा सकता।
यह किसी एक आचार-दर्शन की बपौती नहीं, वह तो प्रत्येक जाग्रत आत्मा की अनुभूति है। उसकी अनुभूति से ही मन के कलुष धुलने लगते हैं, वासनाएँ शिथिल हो जाती हैं, अहं गलने लगता है। तृष्णा और कषार्यो की अग्नि तप की उष्मा के प्रकट होते ही निःशेष
जाती है। जड़ता क्षीण हो जाती है। चेतना और आनन्द का एक नया आयाम खुल जाता है, एक नवीन अनुभूति होती है। शब्द और भाषा मौन हो जाती है, आचरण की वाणी मुखरित होने लगती है।
तप का यही जीवन्त और जाग्रत शाश्वत स्वरूप है, जो सार्वजनीन और सार्वकालिक है। सभी साधना-पद्धतियाँ इसे मानकर चलती हैं और देश-काल के अनुसार इसके किसी एक द्वार से साधकों को तप के इस भव्य महल में लाने का प्रयास करती हैं, जहाँ साधक अपने परमात्मस्वरूप का दर्शन करता है, आत्मन् ब्रह्म या ईश्वर का साक्षात्कार करता है। तप एक ऐसा प्रशस्त - योग है, जो आत्मा को परमात्मा से जोड़ देता है, आत्मा का परिष्कार कर उसे परमात्म-स्वरूप बना देता है।
सन्दर्भ ग्रन्थ -
1. उत्तराध्ययन, 28/2, 3, 35, दर्शनपाहुड, 32 2. बौद्धदर्शन तथा अन्य भारतीय दर्शन, पृ. 71-72
3. जीवनसाहित्य, द्वितीय भाग, पृ. 197-198
. दशवैकालिक, 1/1
5. देखिए - श्रीमद्भागवत, 5/2, मज्झिमनिकाय - चूल दुक्खक्खन्ध सु
4.
6. ऋग्वेद, 10/190/1
7. मनुस्मृति, 11/243
8. मुण्डकोपनिषद्, 1/1/8
9. अथर्ववेद, 11/3/5/19
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