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________________ भारतीय आचार- दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन उपादेयता भी सिद्ध हो जाती है। जैसे व्यायाम के रूप में किया हुआ देह - दण्डन (शारीरिककष्ट) स्वास्थ्य-रक्षा एवं शक्ति-संचय का कारण होकर जीवन के व्यावहारिक क्षेत्र में भी लाभप्रद होता है, वैसे ही तपस्या के रूप में देह-दण्डन का अभ्यास करने वाला अपने शरीर में कष्ट-सहिष्णु शक्ति विकसित कर लेता है, जो वासनाओं के संघर्ष में ही नहीं, जीवन की सामान्य स्थितियों में भी सहायक होती है। एक उपवास का अभ्यासी व्यक्ति यदि किसी परिस्थिति में भोजन प्राप्त नहीं कर पाता, तो इतना व्याकुल नहीं होता, जितना अनभ्यस्त व्यक्ति । कष्ट-सहिष्णुता का अभ्यास आध्यात्मिक प्रगति के लिए आवश्यक है । आध्यात्मिक दृष्टि के बिना शारीरिक- यन्त्रणा अपने-आप में कोई तप नहीं है, उसमें भी यदि इस शारीरिक - यन्त्रणा के पीछे लौकिक या पारलौकिक- स्वार्थ है, तो फिर उसे तपस्या कहना महान् मूर्खता होगी। जैन- दार्शनिक भाषा में, तपस्या में देह - दण्डन किया नहीं जाता, हो जाता है। तपस्या का प्रयोजन आत्म-परिशोधन है, न कि देहus | घृत की शुद्धि के लिए घृत को तपाना होता है, न कि पात्र को, उसी प्रकार आत्मम-शुद्धि के लिए आत्म-1 म-विकारों को तपाया जाता है, न कि शरीर को । शरीर तो आत्मा का भाजन (पात्र) होने से तप जाता है, तपाया नहीं जाता। जिस तप में मानसिककष्ट हो, वेदना हो, पीड़ा हो, वह तप नहीं है। पीड़ा का होना एक बात है और पीड़ा की व्याकुलता की अनुभूति करना दूसरी बात है । तप में पीड़ा हो सकती है, लेकिन पीड़ा की व्याकुलता की अनुभूति नहीं। पीड़ा शरीर का धर्म है, व्याकुलता की अनुभूति आत्मा का। ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जिनमें इन दोनों को अलग-अलग देखा जा सकता है। जैन-बालक जब उपवास करता है, तो उसे भूख की पीड़ा अवश्य होगी, लेकिन वह पीड़ा की व्याकुलता की अनुभूति नहीं करता। वह उपवास तप के रूप में करता है और तप तो आत्मा का आनन्द है। वह जीवन के सौष्ठव को नष्ट नहीं करता, वरन् जीवन के आनन्द को परिष्कृत करता है । 142 पुनः, तप को केवल देह - दण्डन मानना बहुत बड़ा भ्रम है। देह - दण्डन तप का एक छोटा-सा प्रकार - मात्र है । 'तप' शब्द अपने-आप में व्यापक है। विभिन्न साधना-पद्धतियों ने तप की विभिन्न परिभाषाएँ की है और उन सबका समन्वित स्वरूप ही तप की एक पूर्ण परिभाषा को व्याख्यायित कर सकता है। संक्षेप में, जीवन के शोधन एवं परिष्कार के लिए किए गए समग्र प्रयास तप हैं । यह तप की निर्विवाद परिभाषा है, जिसके मूल्यांकन के प्रयास की आवश्यकता ही प्रतीत नहीं होती है । जीवन - परिष्कार के प्रयास का मूल्य सर्वग्राह्य है, सर्वस्वीकृत है। इस पर न किसी पूर्व वाले को आपत्ति हो सकती है, न पश्चिमवाले को । यहाँ आत्मवादी और भौतिकवादी- सभी समभूमि पर स्थित हैं और यदि हम तप की उपर्युक्त परिभाषा को स्वीकृत करके चलते हैं, तो निषेधात्मक दृष्टि से तृष्णा, राग, द्वेष आदि चित्त की समस्त अकुशल wy Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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