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________________ सम्यक् - तप तथा योग-मार्ग प्राणवायुओं पर विजय प्राप्त करना ही प्राणायाम है। इसके रेचक, पूरक और कुम्भक - ये तीन भेद हैं । यद्यपि जैन-धर्म के मूल आगमों में प्राणायाम-सम्बन्धी विवेचन उपलब्ध नहीं है, तथापि आचार्य शुभचन्द्र के ज्ञानार्णव और आचार्य हेमचन्द्र के योगशास्त्र में प्राणायाम का विस्तृत विवेचन है । 5. प्रत्याहार - इन्द्रियों की बहिर्मुखता को समाप्त कर उन्हें अन्तर्मुखी करना प्रत्याहार है। जैन दर्शन में प्रत्याहार के स्थान पर प्रतिसंलीनता शब्द का प्रयोग हुआ है, वह चार प्रकार की है 1. इन्द्रिय- प्रतिसंलीनता, 2. कषाय- प्रतिसंलीनता, 3. योगप्रतिसंलीनता और 4. विविक्त - शयनासन - सेवनता। इस प्रकार, योग-दर्शन के प्रत्याहार का समावेश जैन-दर्शन की प्रतिसंलीनता में हो जाता है । - 139 6. धारणा - चित्त की एकाग्रता के लिए उसे किसी स्थान - विशेष पर केन्द्रित करना धारणा है । धारणा का विषय प्रथम स्थूल होता है, तो क्रमशः सूक्ष्म और सूक्ष्मतर होता जाता है। जैन आगमों में धारणा का वर्णन स्वतंत्र रूप में नहीं मिलता, यद्यपि उसका उल्लेख ध्यान के एक अंग के रूप में अवश्य हुआ है। जैन - परम्परा में ध्यान की अवस्था में नासिकाग्र पर दृष्टि केन्द्रित करने का विधान है । दशाश्रुतस्कंधसूत्र में भिक्षुप्रतिमाओं का विवेचन करते हुए एक - पुद्गलनिविदृष्टि का उल्लेख है। 7. ध्यान - जैन न-परम्परा में योग-साधना के रूप में ध्यान का विशेष विवेचन उपलब्ध है । 8. समाधि - चित्तवृत्ति का स्थिर हो जाना अथवा उसका क्षय हो जाना समाधि है। जैन-परम्परा में समाधि शब्द का प्रयोग तो काफी हुआ है, लेकिन समाधि को ध्यान से पृथक् नहीं माना गया है। जैन- परम्परा में धारणा, ध्यान और समाधि- तीनों ध्यान में ही समाविष्ट है। शुक्लध्यान की अवस्थाएँ समाधि के तुल्य हैं। समाधि के दो विभाग किए गए हैं - 1. संप्रज्ञात -समाधि और 2. असंप्रज्ञात -समाधि । संप्रज्ञात-समाधि का अन्तर्भाव में प्रथम दो प्रकार पृथक्त्ववितर्क-सविचार और एकत्ववितर्क- अविचार में और असंप्रज्ञात -समाधि का अन्तर्भाव शुक्ल - ध्यान के अन्तिम दो प्रकार सूक्ष्मक्रिया- अप्रतिपाती और समुच्छिन्नक्रियानिवृत्ति में हो जाता है । 53 इस प्रकार, अष्टांग योग में प्राणायाम को छोड़कर शेष सभी का विवेचन जैनआगमों में उपलब्ध है। यही नहीं, परवर्ती जैनाचार्यों ने प्राणायाम का विवेचन भी किया है। आचार्य हरिभद्र ने तो पंचांग-योग का विवेचन भी किया है, जिसमें योग के निम्न पाँच अंग बताए हैं - 1. अध्यात्म, 2. भावना, 3. ध्यान, 4. समता और 5. वृत्तिसंक्षय । आचार्य हरिभद्र ने योगदृष्टिसमुच्चय, योग- बिन्दु और योगविंशिका; आचार्य शुभचन्द्र ने ज्ञानार्णव तथा आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र की रचना कर जैन- - परम्परा में योग-विद्या का विकास किया है I Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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