________________
भारतीय आचार- दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
तप का सामान्य स्वरूप, एक मूल्यांकन - तप शब्द अनेक अर्थों में भारतीय आचार-दर्शन में प्रयुक्त हुआ है और जब तक उसकी सीमाएँ निर्धारित नहीं कर ली जात, उसका मूल्यांकन करना कठिन है। 'तप' शब्द एक अर्थ में त्याग-भावना को व्यक्त करता है। त्याग, चाहे वह वैयक्तिक स्वार्थ एवं हितों का हो, चाहे वैयक्तिक- सुखोपलब्धियों का हो, तप कहा जा सकता है। सम्भवतः, यह तप की विस्तृत परिभाषा होगी, लेकिन यह तप
140
निषेधात्मक पक्ष को ही प्रस्तुत करती है। यहाँ तप संयम, इन्द्रिय-निग्रह और देहदण्डन बनकर रह जाता है। तप मात्र त्यागना ही नहीं है, उपलब्ध करना भी है। तप का केवल विसर्जनात्मक मूल्य मानना भ्रम होगा। भारतीय आचार- दर्शनों ने जहाँ तप के विसर्जनात्मक मूल्यों की गुण - गाथा गायी है, वहीं उसके सृजानात्मक मूल्य को भी स्वीकार किया है। वैदिक परम्परा में तप को लोक-कल्याण का विधान करने वाला कहा गया है। गीता की लोक-संग्रह की और जैन - परम्परा की वैयावृत्य या संघ-सेवा की अवधारणाएँ तप के विधायक अर्थात् लोक-कल्याणकारी पक्ष को ही तो अभिव्यक्त करती है। बौद्धपरम्परा जब 'बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय' का उद्घोष देती है, तब वह भी तप के विधायक - मूल्य का ही विधान करती है ।
सृजनात्मक-पक्ष में तप आत्मोपलब्धि ही है, लेकिन यहाँ स्व-आत्मन् इतना व्यापक होता है कि उसमें स्व या पर का भेद ही नहीं टिक पाता है और इसीलिए एक तपस्वी का आत्म-कल्याण और लोक-कल्याण परस्पर विरोधी नहीं होकर एकरूप होते हैं। एक तपस्वी के आत्मकल्याण में लोकक-कल्याण समाविष्ट रहता है और उसका लोक-कल्याण आत्म-कल्याण ही होता है ।
तप, चाहे वह इन्द्रिय-संयम हो, चित्त निरोध हो, अथवा लोक-कल्याण या बहुजन हित हो, उसके महत्व से इनकार नहीं किया जा सकता। उसका वैयक्तिक जीवन के लिए एवं समाज के लिए महत्व है। डॉ. गफ आदि कुछ पाश्चात्य - विचारकों ने तथा किसी सीमा तक स्वयं बुद्ध ने भी तपस्या को आत्म-निर्यातन (Self Torture) या स्वपीड़न के रूप में देखा और इसी आधार पर उसकी आलोचना भी की है। यदि तपस्या का अर्थ केवल आत्म-निर्यात या स्वपीड़न ही है और यदि इस आधार पर उसकी आलोचना की गई है, तो समुचित कही जा सकती है। जैन- विचारणा और गीता की धारणा भी इससे सहमत ही होगी ।
लेकिन, यदि हमारी सुखोपलब्धि के लिए परपीड़न अनिवार्य हो, तो ऐसी सुखोपलब्धि समालोच्य भारतीय आचार - दर्शनों द्वारा त्याज्य ही होगी।
इसी प्रकार, यदि स्वपीड़न या परपीड़न-दोनों में से किसी एक का चुनाव करना हो, तो स्वपीड़न ही चुनना होगा। नैतिकता का यही तकाजा है। उपर्युक्त दोनों स्थितियों में स्वपीड़न या आत्म-निर्यातन को क्षम्य मानना ही पड़ेगा। भगवान बुद्ध स्वयं ऐसी स्थिति में
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org