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________________ सम्यक्-तप तथा योग-मार्ग 127 भी यह सुनिश्चित है कि बुद्ध ने तपश्चर्या के द्वारा देह-दण्डन की प्रक्रिया को निर्वाण-प्राप्ति में उपयोगी नहीं माना। उसका अर्थ इतना ही है कि बुद्ध अज्ञानमूलक देह-दण्डन को निर्वाण के लिए उपयोगी नहीं मानते थे, ज्ञान-युक्त तप-साधना तो उन्हें भी मान्य थी। श्री भरतसिंह उपाध्याय के शब्दों में, भगवान् बुद्ध की तपस्या में मात्र शारीरिक-यन्त्रणा का भाव बिलकुल नहीं था, किन्तु वह सर्वथा सुख-साध्य भर नहीं थी।1 डॉ. राधाकृष्णन् का कथन है, यद्यपि बुद्ध ने कठोर तपश्चर्या की आलोचना की, फिर भी यह आश्चर्यजनक है कि बौद्ध-श्रमणों का अनुशासन किसी भी ब्राह्मण-ग्रन्थ में वर्णित अनुशासन (तपश्चर्या) से कम कठोर नहीं है। यद्यपि बुद्ध सैद्धान्तिक दृष्टि से तपश्चर्या के अभाव में भी निर्वाण की उपलब्धि सम्भव मानते हैं, तथापि व्यवहार में तप उनके अनुसार आवश्यक प्रतीत होता है। बुद्ध के परिनिर्वाण के उपरान्त भी बौद्ध भिक्षुओं में धुतंग (जंगल में रहकर विविध प्रकार की तपश्चर्या करने वाले) भिक्षुओं का काफी महत्वथा। विसुद्धिमग्ग एवं मिलिन्दप्रश्न में ऐसे धुतंगों की प्रशंसा की गई है। दीपवंश में कश्यपके विषय में लिखा है कि वेधुतवादियों के अगुआथे। (धुतवादानं अग्गो सो कस्सपो जिन-सासने)। ये सब तथ्य बौद्ध-दर्शन एवं आचार में तप का महत्व बताने के लिए पर्याप्त हैं। तपके स्वरूप का विकास-जैन, बौद्ध और वैदिक-परम्पराओं में हमने तपके महत्व को देखा, लेकिन तप के स्वरूप को लेकर इन परम्पराओं में सैद्धान्तिक-अन्तर भी है। पौराणिक-ग्रन्थों तथा जैन एवं बौद्ध-आगमों में तपस्या के स्वरूप का क्रमिक ऐतिहासिक-विकास उपलब्ध होता है। पं. सुखलालजी तप के स्वरूप के ऐतिहासिकविकास के सम्बन्ध में लिखते हैं, ऐसा ज्ञात होता है कि तप का स्वरूप स्थूल में से सूक्ष्म की ओर क्रमशः विकसित होता गया है- तपोमार्ग का विकास होता गया और उसके स्थूलसूक्ष्म अनेक प्रकार साधकों ने अपनाए। तपोमार्ग अपने विकास में चार भागों में बाँटा जा सकता है-1. अवधूत-साधना, 2. तापस-साधना, 3. तपस्वी-साधना और 4. योगसाधना, जिनमें क्रमशः तप के सूक्ष्म प्रकारों का उपयोग होता गया, तपका स्वरूप बाह्य से आभ्यन्तर बनता गया, साधना देह-दमन से चित्तवृत्ति के निरोध की ओर बढ़ती गई।23 जैन-साधना तपस्वी एवं योग-साधना का समन्वित रूप में प्रतिनिधित्व करती है, जबकि बौद्ध एवं गीता के आचार-दर्शन योग-साधना का प्रतिनिधित्व करते हैं, फिर भी वे सभी अपने विकास के मूल केन्द्र से पूर्ण अलग नहीं हैं। जैन-आगम आचारांगसूत्र का धूतअध्ययन, बौद्ध-ग्रन्थ विसुद्धिमग्ग काधूतंगनिद्देस और हिन्दू-साधना की अवधूत-गीता इन आचार-दर्शनों के किसी एक ही मूल केन्द्र की ओर इंगित करते हैं । जैन साधना का तपस्वी-मार्ग तापस-मार्ग का ही अहिंसक-संस्करण है। बौद्ध और जैन-विचारणा में जो विचार-भेद है, उसके पीछे एक ऐतिहासिक-कारण है। यदिमज्झिमनिकाय के बुद्ध के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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