SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 130
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भारतीय आचार- दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन उस कथन को ऐतिहासिक मूल्य का समझा जाए, तो यह प्रतीत होता है कि बुद्ध ने अपने प्रारम्भिक साधक - जीवन में बड़े कठोर तप किए थे। पं. सुखलालजी लिखते हैं कि उस निर्देश को देखते हुए ऐसा कहा जा सकता है कि अवधूत-मार्ग (मत का अत्यन्त स्थूल रूप ) में जिस प्रकार के तपोमार्ग का आचरण किया जाता था, बुद्ध ने वैसे ही उग्र तप किए थे । गोशालक और महावीर तपस्वी तो थे ही, परन्तु उनकी तपश्चर्या में न तो अवधूतों की और न तापसों की तपश्चर्या का अंश था। उन्होंने बुद्ध जैसे तप-व्रतों का आचरण नहीं किया। बुद्ध तप की उत्कट कोटि पर पहुँचे थे, परन्तु जब उसका परिणाम उनके लिए सन्तोषप्रद नहीं आया, तब वे ध्यानमार्ग की ओर अभिमुख हुए और तप को निरर्थक मानने और मनवाने लगे, शायद यह उनके उत्कट देह-दमन की प्रतिक्रिया हो 125 128 गीता में भी तप के योगात्मक-स्वरूप पर ही अधिक बल दिया गया है। गीता में तप की महिमा तो बहुत गायी गई है, 26 लेकिन गीताकार का झुकाव देह दण्डन पर नहीं है, वरन् उसने तो ऐसे तप को निम्न स्तर का माना है। 27 गीताकार ने 'तपस्विभ्योऽधिकोयोगी 28 कहकर इसी तथ्य को और अधिक स्पष्ट कर दिया है। बौद्ध परम्परा और गीता तप के योग - पक्ष पर ही अधिक बल देती है, जबकि जैन-दर्शन में उसके पूर्व रूप भी स्वीकृत रहे हैं । जैन दर्शन का विरोध तप के उस रूप से रहा है, जो अहिंसक दृष्टिकोण के विपरीत जाता है । बुद्ध यद्यपि योगमार्ग पर अधिक बल दिया और ध्यान की पद्धति को विकसित किया है, तथापि तपस्या - मार्ग का उन्होंने स्पष्ट विरोध भी नहीं किया। उनके भिक्षुक धुतंग- व्रत के रूप में इस तपस्या-मार्ग का आचरण करते थे । 1 जैन-साधना में तप का प्रयोजन-तप यदि नैतिक जीवन की एक अनिवार्य प्रक्रिया है, तो उसे किसी लक्ष्य के निमित्त होना चाहिए, अतः यह निश्चय कर लेना भी आवश्यक है कि तप का उद्देश्य और प्रयोजन क्या है ? जैन-साधना का लक्ष्य शुद्ध आत्म-तत्त्व की उपलब्धि है, आत्मा का शुद्धिकरण है, लेकिन यह शुद्धिकरण क्या है ? जैन-दर्शन यह मानता है कि प्राणी कायिक, वाचिक एवं मानसिक क्रियाओं के माध्यम से कर्मवर्गणाओं के पुद्गलों (Karmic Matter) को अपनी ओर आकर्षित करता है और ये आकर्षित कर्म-वर्गणाओं के पुद्गल राग-द्वेष या कषायवृत्ति के कारण आत्मतत्त्व से एकीभूत हो, उसकी शुद्ध सत्ता, शक्ति एवं ज्ञान - ज्योति को आवरित कर देते हैं । यह जड़ तत्त्व एवं चेतन तत्व का संयोग ही विकृति है । 1 -- अतः, शुद्ध आत्म-तत्त्व की उपलब्धि के लिए आत्मा की स्वशक्ति को आवरित करने वाले कर्मपुद्गलों का विलगाव आवश्यक है। पृथक् करने की इस क्रिया को निर्जरा कहते हैं, जो दो रूपों में सम्पन्न होती है। जब कर्म - पुद्गल अपनी निश्चित अवधि के पश्चात् अपना फल देकर स्वतः अलग हो जाते हैं, वह सविपाक - निर्जरा है, लेकिन यह नैतिक-स‍ -साधना का मार्ग नहीं है। नैतिक-साधना तो सप्रयास है। प्रयासपूर्वक कर्म-पुद्गलों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy