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________________ सम्यक्-तप तथा योग-मार्ग जैन साधना-पद्धति में तप का स्थान - जैन तीर्थंकरों एवं विशेषकर महावीर का जीवन ही, जैन-साधना में तप के स्थान का निर्धारण करने के हेतु एक सबलतम साक्ष्य है। महावीर के साधनाकाल (साढ़े बारह वर्ष ) में लगभग ग्यारह वर्ष तो निराहार गिने जा सकते हैं। महावीर का यह सारा साधना-काल स्वाध्याय, आत्म-चिन्तन, ध्यान और 125 सर्ग से भरा है । जिस आचार - दर्शन का शास्ता अपने जाग्रत जीवन में तप का ऐसा उज्ज्वलतम उदाहरण प्रस्तुत करता हो, उसकी साधना-पद्धति तपः शून्य कैसे हो सकती है ? उस शास्ता का तपोमय जीवन अतीत से वर्त्तमान तक जैन-साधकों को तप-साधना की प्रेरणा देता रहा है। आज भी सैकड़ों जैन-साधक ऐसे मिलेंगे, जो 8-10 दिन ही नहीं, वरन् एक और दो-दो माह तक केवल उष्ण जल पर रहकर तप साधना करते हैं, ऐसे अनेक होंगे जिनके भोजन के दिनों का योग वर्ष में दो-तीन माह से अधिक नहीं बैठता, शेष सारा समय उपवास आदि तपस्या में व्यतीत होता है । - जैन - साधना, समत्वयोग की साधना है और यही समत्वयोग आचरण के व्यावहारिक क्षेत्र में अहिंसा बन जाता है और यही अहिंसा निषेधात्मक साधना- क्षेत्र में संयम कही जाती है और संयम ही क्रियात्मक रूप में तप है। अहिंसा, संयम और तप अपनी गहन विवेचना में एक-दूसरे के पर्यायवाची ही प्रतीत होते हैं। अभिव्यंजना की दृष्टि से चाहें, तो हम इन्हें अलग रख सकते हैं और उसी अपेक्षा में अलग-अलग अर्थ भी ध्वनित करते हैं। अहिंसा, संयम और तप मिलकर ही धर्म के समग्र स्वरूप को उपस्थित करते हैं। संयम और तप अहिंसा की दो पांखें हैं, जिनके बिना अहिंसा की गति एवं विकास अवरुद्ध हो जाता है। और संयम से युक्त अहिंसा-धर्म की मंगलमयता का उद्घोष करते हुए जैनाचार्य कहते हैं - धर्म मंगलमय है, कौनसा धर्म ? अहिंसा, संयम और तपमय धर्म ही सर्वोत्कृष्ट तथा मंगलमय है । जो इस धर्म के पालन में दत्तचित्त है, उसे मनुष्य तो क्या, देवता भी नमन करते हैं । ' जैन-साधना का लक्ष्य मोक्ष या शुद्ध आत्मतत्त्व की उपलब्धि है और जो केवल तप-साधना (अविपाक-निर्जरा) से ही सम्भव है। जैन साधना में तप का क्या स्थान है, इस तथ्य के साक्षी जैनागम ही नहीं हैं, वरन् बौद्ध और हिन्दू-आगमों में भी जैन-साधना के तपोमय स्वरूप का वर्णन उपलब्ध होता है । ' हिन्दू साधना-पद्धति में तप का स्थान- वैदिक-साधना चाहे प्रारम्भिक काल में तप-प्रधान ( निवृत्तिपरक) न रही हो, लेकिन विकासचरण में श्रमण-परम्परा में प्रभावित हो, समन्वित हो, तपोमय साधना से युक्त हो गई, वैदिक ऋषि तप की महत्ता का सबलतम शब्दों में उद्घोष करते हैं। वे कहते हैं, तपस्या से ही ऋत और सत्य उत्पन्न हुए, ' ' तपस्या से ही वेद उत्पन्न हुए', तपस्या से ही ब्रह्म खोजा जाता है ', तपस्या से ही मृत्यु पर विजय पाई जाती है और ब्रह्मलोक प्राप्त किया जाता है । ' तपस्या के द्वारा ही तपस्वी-जन लोक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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