SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 122
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन आचारगत भिन्नताएँ होती हैं - प्रत्येक कुल की अपनी आचार-परम्पराएँ होती हैं, जिन्हें 'कुलाचार' कहा जाता है। देशाचार, कुलाचार और जात्याचार श्रुति और स्मृतियों से प्रतिपादित आचार-नियमों के अतिरिक्त होते हैं । सामान्यतया, हिन्दूधर्म - शास्त्रकारों ने इसके पालन की अनुशंसा की है। यही नहीं, कुछ स्मृतिकारों के द्वारा तो ऐसे आचारनियम श्रुति, स्मृति आदि के विरुद्ध होने पर भी पालनीय कहे गए हैं । बृहस्पति का तो कहना है - बहुजन और चिरकालमानित देश, जाति और कुल के आचार (श्रुति- विरुद्ध होने पर भी पालनीय हैं, अन्यथा प्रजा में क्षोभ उत्पन्न होता है और राज्य की शक्ति और 6. क्षीण हो जाता है। 23 याज्ञवल्क्य ने आचार के अन्तर्गत निम्नलिखित विषय सम्मिलित किए हैं - 1. संस्कार, 2. वेदपाठी ब्रह्मचारियों के चारित्रिक - नियम, 3. विवाह ( पति-पत्नी के कर्तव्य ), 4. चार वर्णों एवं वर्णशंकरों के कर्त्तव्य, 5. ब्राह्मण गृहपति के कर्त्तव्य, विद्यार्थी जीवन की समाप्ति पर पालनीय - नियम, 7. भोजन के नियम, 8. धार्मिक पवित्रता, 9. श्राद्ध, 10. गणपति-पूजा, 11. गृहशान्ति के नियम, 12. राजा के कर्तव्य आदि 124 यद्यपि सदाचार के उपर्युक्त विवेचन से ऐसा लगता है कि सदाचार का सम्बन्ध नैतिकता या साधनापरक - आचार से न होकर लोक-व्यवहार (लोक - रूढ़ि ) या बाह्याचार 120 विधि - निषेधों से अधिक है, जबकि जैन- परम्परा के सम्यक् चारित्र का सम्बन्ध साधनात्मक एवं नैतिक जीवन से है। जैनधर्म लोक-व्यवहार की उपेक्षा नहीं करता है, फिर भी उसकी अपनी मर्यादाएँ हैं. - (1) उसके अनुसार, वही लोक-व्यवहार पालनीय है, जिसके कारण सम्यक्दर्शन और सम्यक्चारित्र (गृहीत व्रत, नियम आदि) में कोई दोष नहीं लगता हो, अतः निर्दोष लोक-व्यवहार ही पालनीय है, सदोष नहीं । (2) दूसरे, यदि कोई आचार ( बाह्याचार) निर्दोष है, किन्तु लोक - व्यवहार के विरुद्ध है, तो उसका आचरण नहीं करना चाहिए (यदपि शुद्धं तदपि लोकविरूद्धं न समाचरेत्), किन्तु इसका विलोम सही नहीं है, अर्थात् सदोष आचार लोकमान्य होने पर भी आचरणीय नहीं है। उपसंहार सामान्यतया; जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों में सम्यक्चारित्र, शील एवं सदाचार का तात्पर्य राग-द्वेष, तृष्णा या आसक्ति का उच्छेद रहा है। प्राचीन साहित्य में इन्हें ग्रन्थिया हृदयग्रन्थि कहा गया है। ग्रन्थि का अर्थ गाँठ होता है, गाँठ बाँधने का कार्य करती है, चूँकि ये तत्त्व व्यक्ति को संसार से बाँधते हैं और परमसत्ता से पृथक् रखते हैं, इसीलिए इन्हें ग्रन्थि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy