________________
सम्यक्चारित्र (शील)
कहा गया है। इस गाँठ का खोलना ही साधना है, चारित्र है या शील है। सच्चा निर्ग्रन्थ वही है, इस ग्रन्थ का मोचन कर देता है। आचार के समग्र विधि-निषेध इसी के लिए हैं ।
121
वस्तुतः, सम्यक् चारित्र या शील का अर्थ काम, क्रोध, लोभ, छल-कपट आदि शुभ प्रवृत्तियों से दूर रहना है। तीनों ही आचारदर्शन साधक को इनसे बचने का निर्देश देते हैं। जैन - परम्परा के अनुसार, व्यक्ति जितना क्रोध, मान, माया ( कपट) और लोभ की वृत्तियों का शमन एवं विलयन करेगा, उतना ही वह साधना या सच्चरित्रता के क्षेत्र में आगे बढ़ेगा। गीता कहती है, जब व्यक्ति काम, क्रोध, लोभ आदि आसुरी प्रवृत्तियों से ऊपर उठकर अहिंसा, क्षमा आदि दैवी सद्गुणों का सम्पादन करेगा, तो वह अपने को परमात्मा
निकट पाएगा। 'सद्गुणों का सम्पादन और दुर्गुणों से बचाव' एक ऐसा तत्त्व है, जहाँ न केवल सभी भारतीय, अपितु अधिकांश पाश्चात्य - आचारदर्शन भी समस्वर हो उठते हैं, चाहे इनके विस्तार क्षेत्र एवं प्राथमिकता के प्रश्न को लेकर उनमें मतभेद हों। उनमें विवाद इस बात पर नहीं है कि कौन सद्गुण है और कौन दुर्गुण है, अपितु विवाद इस बात पर है कि किस सद्गुण का किस सीमा तक पालन किया जाए और दो सद्गुणों के पालन में विरोध उपस्थित होने पर किसे प्राथमिकता दी जाए, उदाहरणार्थ 'अहिंसा सद्गुण है', यह सभी मानते हैं, किन्तु अहिंसा का पालन किस सीमा तक किया जाए, इस प्रश्न पर मतभेद रखते हैं। इसी प्रकार, न्याय (जस्टिस ) और दयालुता - दोनों को सभी ने सद्गुणों के रूप में स्वीकार किया है, किन्तु जब न्याय और दयालुता में विरोध हो, अर्थात् दोनों का एक साथ सम्पादन सम्भव न हो, तो किसे प्रधानता दी जाए, इस प्रश्न पर मतभेद हो सकता है, फिर भी, सद्गुणों का यथाशक्ति सम्पादन किया जाए इसे सभी स्वीकार करते हैं ।
वस्तुतः, सम्यक् चारित्र या शील मन, वचन और कर्म के माध्यम से वैयक्तिक और सामाजिक - जीवन में समत्व के संस्थापन का प्रयास है, वह व्यक्ति के जीवन के विभिन्न पक्षों में एक सांग-सन्तुलन स्थापित कर उसके आन्तरिक संघर्ष को समाप्त करने की दिशा में उठाया गया कदम है। इतना ही नहीं, वह व्यक्ति के सामाजिक-पक्ष का भी संस्पर्श करता है । व्यक्ति और समाज के मध्य तथा समाज और समाज के मध्य होने वाले संघर्षों की सम्भावनाओं के अवसरों को कम कर सामाजिक समत्व की संस्थापना भी सम्यक्चारित्र का लक्ष्य है।
इन्हीं लक्ष्यों को ध्यान में रखते हुए जैन, बौद्ध और वैदिक-परम्पराओं में गृहस्थ और श्रमण के आचारविषयक अनेक सामान्य और विशिष्ट नियमों या विधियों का प्रतिपादन किया गया है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org