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________________ सम्यक्चारित्र (शील) 119 का मूल बताया गया है। वैदिक आचार्य गोविन्दराज ने शील की व्याख्या रागद्वेष के परित्याग के रूपमें की है (शीलं रागद्वेषपरित्याग इत्याह' )।हारीत के अनुसार ब्रह्मण्यता, देवपितृभक्तिता, सौम्यता, अपरोपतापिता, अनसूयता, मृदुता, अपारुष्य, मैत्रता, प्रियवादिता, कृतज्ञता, शरण्यता, कारुण्य और प्रशान्तता- ये तेरह प्रकार का गुण-समूह शील है। सामयाचारिक-आपस्तम्ब-धर्मसूत्र के भाष्य में सामयाचारिकशब्द की व्याख्या निम्न प्रकार की गई है-आध्यात्मिक व्यवस्था को 'समय' (धर्मज्ञसमयः) कहते हैं। वह तीन प्रकार का होता है-विधि, प्रतिषेध और नियम। आचारों का मूल 'समय' (सिद्धांत) में होता है। समय से उत्पन्न होने के कारण वे सामयाचारिक कहलाते हैं। अभ्युदय और निःश्रेयस के हेतु अपूर्व नामक आत्मा के गुण को धर्म कहते हैं । वैदिक-परम्परा का यह सामयाचारिक शब्द जैन-परम्परा के सामाचारी (समयाचारी) और सामयिक के अधिक निकट है।आचारांग में 'समय' शब्दसमता के अर्थ में और सूत्रकृतांग में 'सिद्धांत' के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। जैन-परम्परा में समता से युक्त आचार को सामायिक' और सिद्धान्त (शास्त्र) से निःसृत आचार-नियमों को सामाचारी' कहा गया है। गीता भी शास्त्रविधान के अनुसार आचरण का निर्देश कर सामयाचारिक या सामाचारी के पालन की धारणा को पुष्ट करती है। शिष्टाचार-शिष्ट आचार शिष्टाचार कहा जाता है। शिष्ट शब्द की व्याख्या करते हुए वशिष्ठधर्मसूत्र में कहा है कि जो स्वार्थमय कामनाओं से रहित है, वह शिष्ट है' (शिष्टः पुनरकामात्मा), इस आधार पर शिष्टाचार का अर्थ होगा-निष्काम भाव से किया जाने वाला आचार शिष्टाचार है, अथवा निःस्वार्थ व्यक्ति का आचरण शिष्टाचार है । ऐसा आचार धर्म का कारणभूत होने से प्रमाणभूत माना गया है। इस प्रकार, यहाँ शिष्टाचार का अर्थ, सामान्यतया शिष्टाचार से हम जो अर्थ ग्रहण करते हैं, उससे भिन्न है। शिष्टाचार निःस्वार्थ या निष्काम कर्म है। निष्काम कर्म या सेवा की अवधारणा गीता में स्वीकृत है ही और उसे जैन तथा बौद्ध-परम्पराओं ने भी पूरी तरह मान्य किया है। सदाचार - मनु के अनुसार, ब्रह्मावर्त में निवास करने वाले चारों वर्गों का जो परम्परागत आचार है, वह सदाचार है।2 सदाचार के तीन भेद हैं - 1- देशाचार 2जात्याचार और 3- कुलाचार । विभिन्न प्रदेशों में परम्परागत रूप से चले आते आचारनियम देशाचार' कहे जाते हैं। प्रत्येक देश में विभिन्न जातियों के भी अपने-अपने विशिष्ट आचार-नियम होते हैं, ये 'जात्याचार' कहे जाते हैं। प्रत्येक जाति के विभिन्न कुलों में भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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