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________________ 118 भारतीय आचार- दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन सम्यक्-व्यायाम 1. अनुत्पन्न अकुशल के उत्पन्न नहीं होने देने के लिए प्रयत्न 2. उत्पन्न अकुशल के प्रहाण के लिए प्रयत्न 3. अनुत्पन्न कुशल के उत्पादन के लिए प्रयत्न 4. उत्पन्न कुशल के वैपुल्य के लिए प्रयत्न सम्यक् - संकल्प 1. नैष्कर्म्य - संकल्प 2. अव्यापाद-संकल्प 3. अविहिंसा - संकल्प - यदि तुलनात्मक दृष्टि से बौद्ध दर्शन के शील के स्वरूप पर विचार करें, तो ऐसा प्रतीत होता है कि वह जैन-दर्शन की मान्यताओं के निकट ही है । यद्यपि दोनों परम्पराओं में नाम और वर्गीकरण की पद्धतियों का अन्तर है, लेकिन दोनों का आन्तरिक स्वरूप समान ही है । सम्यक्-आचरण के लिए जो अपेक्षाएं बौद्ध जीवन-पद्धति में की गई हैं, वे ही अपेक्षाएं जैन आचार-दर्शन में भी स्वीकृत रही हैं। सम्यक् - वाचा, सम्यक् कर्मान्त और सम्यक्-आजीव के रूप में प्रतिपादित ये विचार जैन दर्शन में भी उपलब्ध हैं। अतः, यह स्पष्ट हो जाता है कि दोनों परम्पराएँ एक-दूसरे के काफी निकट रही हैं। वैदिक - परम्परा में शील या सदाचार - सम्यक् चारित्र को हिन्दू धर्मसूत्रों में शील, सामयाचारिक, सदाचार या शिष्टाचार कहा गया है। गीता की निष्काम कर्म और सेवा की अवधारणाओं को भी सम्यक्चारित्र का पर्यायवाची माना जा सकता है। गीता जिस निष्काम कर्मयोग का प्रतिपादन करती है, वस्तुतः वह मात्र कर्त्तव्य - बुद्धि से एवं कर्त्ताभाव का अभिमान त्यागकर किया गया- - ऐसा कर्म है, जिसमें फलाकांक्षा नहीं होती। क्योंकि इस प्रकार का कर्म (आचरण) कर्मबन्धन कारक नहीं होता है, अतः इसे अकर्म भी कहते हैं। उस आचरण को, जो बन्धन Jain Education International - बनकर मुक्ति का हेतु होता है, जैन- परम्परा में सम्यक्चारित्र और गीता में निष्काम कर्म या अकर्म कहा गया है। गीता के अनुसार, निष्काम कर्म या कर्मयोग के अन्तर्गत दैवीयगुण, अर्थात् अहिंसा, आर्जव, स्वाध्याय, दान, संयम, निर्लोभता, शौच आदि सद्गुणों का सम्पादन, स्वधर्म अर्थात् अपने वर्ण और आश्रम के कर्तव्यों का पालन और लोकसंग्रह (लोक-कल्याणकारी कार्यों का सम्पादन) आता है। इसके अतिरिक्त, भगवद्भक्ति एवं अतिथि - सेवा भी उसकी चारित्रिक साधना का एक अंग है। शील - मनुस्मृति में शील, साधुजनों का आचरण (सदाचरण) और मन की प्रसन्नता (इच्छा, आकांक्षा आदि मानसिक - विक्षोभों से रहित मन की प्रशान्त अवस्था ) को धर्म For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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