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सम्यक् चारित्र (शील)
कहा जाता है। लज्जा और संकोच इसके पदस्थान हैं। लज्जा और संकोच के होने पर ही शील उत्पन्न होता है और स्थित रहता है, उनके न होने पर न तो उत्पन्न होता और न स्थिर रहता है।
शील के गुण - शील के पाँच गुण हैं - 1. शीलवान् व्यक्ति अप्रमादी होता है और अप्रमादी होने से वह विपुल धन-सम्पत्ति प्राप्त करता है। 2. शील के पालन से व्यक्ति की ख्याति या प्रतिष्ठा बढ़ती है। 3. सच्चरित्र व्यक्ति को कहीं भी भय और संकोच नहीं होता । 4. शीलवान् सदैव ही अप्रमत्त चेतनावाला होता है और इसलिए उसके जीवन का अन्त भी जाग्रत-चेतना की अवस्था में होता है। 5. शील के पालन से सुगति या स्वर्ग की प्राप्ति है ।
अष्टांग साधनापथ और शील- बुद्ध के अष्टांग साधना - पथ में सम्यक् - वाचा, सम्यक् - कर्मान्त और सम्यक् - आजीव- ये तीन शील- स्कन्ध हैं । यद्यपि मज्झिमनिकाय और अभिधर्मकोश- व्याख्या के अनुसार शील- स्कन्ध में उपर्युक्त तीनों अंगों का ही समावेश किया गया है", लेकिन यदि हम शील को न केवल दैहिक, वरन् मानसिक भी मानते हैं, तो हमें समाधि-स्कन्ध में से सम्यक् व्यायाम को और प्रज्ञा-स्कन्ध में से सम्यक् संकल्प को ही शील -स्कन्ध में समाहित करना पड़ेगा क्योंकि संकल्प आचरण का चैत्तसिक आधार है और व्यायाम उसकी वृद्धि का प्रयत्न, अतः उन्हें शील- स्कन्ध में ही लेना चाहिए ।
यदि हम शील- स्कन्ध के तीनों अंग तथा समाधि - स्कन्ध के सम्यक् व्यायाम और प्रज्ञा-स्कन्ध के सम्यक् संकल्प को लेकर बौद्ध दर्शन में शील के स्वरूप को समझने का प्रयत्न करें, तो उसका चित्र इस प्रकार से होगा -
सम्यकू - वाचा
1. मृषावाद - विरमण 2. पिशुनवचन- विरमण
3. पुरुषवचन- विरमण
4. व्यर्थसंलाप - विरमण
सम्यक् कर्मान्त 1. अदत्तादान - विरमण
2. प्राणातिपात - विरमण
3. कामेषु मिथ्याचार - विरमण 4. अब्रह्मचर्य - विरमण
सम्यक्-आजीव (अ) भिक्षु नियमों के अनुसार भिक्षा प्राप्त करना (ब) गृहस्थ - नियमों के अनुसार आजीविका अर्जित करना
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