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________________ सम्यक्चारित्र (शील) 115 शील का द्विविध वर्गीकरण 1. चारित्र-वारित्र के अनुसार शील दो प्रकार का माना गया है। भगवान् के द्वारा निर्दिष्ट यह करना चाहिए'-इस प्रकार विधि-रूप में कहे गए शिक्षा-पदों या नियमों का पालन करना चारित्र-शील' है। इसके विपरीत, 'यह नहीं करना चाहिए-इस प्रकार निषिद्ध कर्म न करना ‘वारित्र-शील' है। चारित्र-शील विधेयात्मक है, वारित्र-शील निषेधात्मक है। 2. निश्रित और अनिश्रित के अनुसार शील दो प्रकार का है। निश्रय दो प्रकार के होते हैं - तृष्णा-निश्रय और दृष्टि-निश्रय। भव-संपत्त को चाहते हुए फलाकांक्षा से पाला गयाशील तृष्णा-निश्रित है। मात्रशील से ही विशुद्धि होती है-इस प्रकार की दृष्टि से पाला गया शील दृष्टि-निश्रित है। तृष्णा-निश्रित और दृष्टि-निश्रित-दोनों प्रकार के शील निम्न कोटि के हैं। तृष्णा-निश्रय और दृष्टि-निश्रय से रहित शील अनिश्रित-शील है । यही अनिश्रित-शील निर्वाण-मार्ग का साधक है। 3.कालिक-आधार पर शील दो प्रकार का है। किसी निश्चित समय तक के लिए ग्रहण किया गया शील कालपर्यन्त-शील कहा जाता है, जबकि जीवन-पर्यन्त के लिए ग्रहण किया गया शील आप्राणकोटिक-शील कहा जाता है। जैन-परम्परा में इन्हें क्रमशः इत्वरकालिक और यावत्कथित कहा गया है। 4. सपर्यन्त और अपर्यन्त के आधार पर शील दो प्रकार का है। लाभ, यश, जाति अथवा शरीर के किसी अंग एवं जीवन की रक्षा के लिए जिस शील का उल्लंघन कर दिया जाता है, वह सपर्यन्तशील है। उदाहरणार्थ, किसी विशेषशील-नियम का पालन करते हुए जाति-शरीर के किसी अंग अथवा जीवन की हानि की सम्भावना को देखकर उस शील का त्याग कर देना। इसके विपरीत, जिस शील का उल्लंघन किसी भी स्थिति में नहीं किया जाता, वह अपर्यन्त-शील है। तुलनात्मक-दृष्टि से ये नैतिकता के सापेक्ष और निरपेक्ष-पक्ष हैं। जैन-परम्परा में इन्हें अपवाद और उत्सर्ग-मार्ग कहा गया है। 5.लौकिक और अलौकिक के आधार पर शीलदो प्रकार का है। जिसशील का पालन सामाजिक-जीवन के लिए होता है और जो साम्रव है, वह लौकिक-शील है। जिस शील का पालन निर्वेद, विराग और विमुक्ति के लिए होता है और जो अनासव है, वह लोकोत्तर-शील है । जैन–परम्परा में इन्हें क्रमशः व्यवहार-चारित्र और निश्चय-चारित्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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