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________________ . 114 भारतीय आधार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन की संस्थापना रखती है, वह उतनी ही अधिकमात्रा में चारित्र के उज्ज्वलतम पक्ष को प्रस्तुत करती है। बौद्ध दर्शन और सम्यक्चारित्र बौद्ध-दर्शन में सम्यक्चारित्र के स्थान परशील शब्द का प्रयोग हुआ है। बौद्धपरम्परा में निर्वाण की प्राप्ति के लिए शील को आवश्यक माना गया है। शील और श्रुत या आचरण और ज्ञान-दोनों ही भिक्षु-जीवन के लिए आवश्यक हैं। उसमें भी शील अधिक महत्वपूर्ण माना गया है। विशुद्धिमार्ग में कहा गया है कि यदि भिक्षु अल्पश्रुत भी होता है, किन्तु शीलवान् है, तो शील ही उसकी प्रशंसा का कारण है। उसके लिए श्रुत अपने-आप पूर्ण हो जाता है, इसके विपरीत, यदि भिक्षु बहुश्रुत भी है, किन्तु दुःशील है, तो दुःशीलता उसकी निन्दा का कारण है और उसके लिए श्रुत भी सुखदायक नहीं होता है। शीलकाअर्थ-बौद्ध-आचार्यों के अनुसार, जिससे कुशलधर्मों काधारण होता है या जो कुशल धर्मों का आधार है, वह शील है। सद्गुणों के कारण याशीलन के कारण ही उसे शील कहते हैं। कुछ आचार्यों की दृष्टि से शिरार्थ शीलार्थ है, अर्थात् जिस प्रकार सिर के कट जाने पर मनुष्य मर जाता है, वैसे ही शील के भंग हो जाने पर सारा गुणरूपीशरीर ही विनष्ट हो जाता है, इसलिए शील को शिरार्थ कहा जाता है। विशुद्धिमार्ग में शील के चार रूप वर्णित हैं।2 - 1. चेतना-शील, 2. चैतसिकशील 3. संवर-शील और 4. अनुल्लंघन-शील। 1. चेतना-शील-जीव-हिंसा आदि से विरत रहने वाले याव्रत-प्रतिपत्ति (व्रताचार) पूर्ण करने वाली चेतना ही चेतना-शील है। जीव-हिंसा आदि छोड़नेवाले व्यक्ति का कुशल-कर्मों के करने का विचार चेतना-शील है। 2. चैतसिक-शील-जीव-हिंसा आदिसे विरत रहने वाले की विरति चैतसिकशील है, जैसे वह लोभरहित चित्त से विहरता है। 3. संवर-शील-संवर-शील पाँच प्रकार का है-1. प्रतिमोक्षसंवर, 2. स्मृतिसंवर, 3. ज्ञानसंवर, 4. क्षांतिसंवर और 5. वीर्यसंवर। 4. अनुल्लंघन-शील-ग्रहण किए हुए व्रत-नियम आदिका उल्लंघन न करनायह अनुल्लंघन-शील है। शील के प्रकार विसुद्धिमग में शील का वर्गीकरण अनेक प्रकार से किया गया है, यहाँ उनमें से कुछ रूप प्रस्तुत हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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