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________________ भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन वह इस संसार में रहता हुआ भी तत्त्व - रूप से इस संसार से ऊपर उठ गया है, वह पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होता है। 52 106 इस प्रकार, हम देखते हैं कि जैन-दर्शन के समान गीता भी इसी आत्म-अनात्मविवेक पर जोर देती है। दोनों के निष्कर्ष समान हैं। शरीरस्थ ज्ञायक स्वरूप आत्मा का बोध ही दोनों आचार - दर्शनों को स्वीकार है। गीता में श्रीकृष्ण ज्ञान असि के द्वारा अनात्म में आत्मबुद्धिरूप अज्ञान के छेदन का निर्देश करते हैं, 53 तो आचार्य कुन्दकुन्द प्रज्ञा - छेनी से इस आत्म और अनात्म (जड़) को अलग करने की बात कहते हैं । 54 निष्कर्ष यह है कि जैन, बौद्ध और गीता के आचार-दर्शन में यह भेद - विज्ञान अनात्म-विवेक या क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ - ज्ञान ही ज्ञानात्मक-साधना का लक्ष्य है। यही मुक्ति या निर्वाण की उपलब्धि का आवश्यक अंग है। जब तक अनात्म में आत्म- बुद्धि का परित्याग नहीं होगा, तब तक आसक्ति समाप्त नहीं होती और आसक्ति के समाप्त न होने से निर्वाण या मुक्ति की उपलब्धि नहीं होती । आचारांगसूत्र में कहा है, जो 'स्व' से अन्यत्र दृष्टि नहीं रखता, वह 'स्व' से अन्य रमता भी नहीं है और जो 'स्व' से अन्यत्र रमता नहीं है, वह 'स्व' से अन्यत्र बुद्धि भी नहीं रखता है । SS इस आत्म-दृष्टि या तत्त्व-स्वरूप- दृष्टि का उदय भेद-विज्ञान के द्वारा ही होता है और इस भेद - विज्ञान की कला से निर्वाण या परमपद की प्राप्ति होती है । भेद-विज्ञान वह कला है, जो ज्ञान के व्यावहारिक स्तर से प्रारम्भ होकर साधक को उस आध्यात्मिक-स्तर पर पहुँचा देती है, जहाँ वह विकल्पात्मक-बुद्धि से ऊपर उठकर आत्म-लाभ करता है। निष्कर्ष - भारतीय परम्परा में सम्यग्ज्ञान, विद्या अथवा प्रज्ञा के जिस रूप को आध्यात्मिक एवं नैतिक जीवन के लिए आवश्यक माना गया है, वह मात्र बौद्धिक ज्ञान नहीं है। वह तार्किक विश्लेषण नहीं, वरन् एक अपरोक्षानुभूति है । बौद्धिक विश्लेषण परमार्थ का साक्षात्कार नहीं करा सकता, इसलिए यह माना गया कि बौद्धिक- विवेचनाओं से ऊपर उठकर ही तत्त्व का साक्षात्कार सम्भव है। जैन, बौद्ध और वैदिक- तीनों परम्पराएँ समान रूप से यह स्वीकार करती हैं कि केवल शास्त्रीय ज्ञान से तत्त्व की उपलब्धि नहीं होती। जहाँ तक बौद्धिक- ज्ञान का प्रश्न है, वह अनिवार्य रूप से नैतिक- जीवन के साथ जुड़ा हुआ नहीं है। यह सम्भव है कि एक व्यक्ति विपुल शास्त्रीय ज्ञान एवं तर्क-शक्ति के होते हुए भी सदाचारी न हो । बौद्धिक स्तर पर ज्ञान और आचरण का द्वैत बना रहता है, । लेकिन आध्यात्मिक-स्तर पर यह द्वैत नहीं रहता। वहाँ सदाचरण और ज्ञान साथ-साथ रहते हैं । सुकरात का यह कथन कि 'ज्ञान ही सद्गुण है', ज्ञान के आध्यात्मिक-स्तर का परिचायक है। ज्ञान के आध्यात्मिक-स्तर पर ज्ञान और आचरण - ये दो अलग-अलग भी - - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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