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________________ सम्यग्ज्ञान (ज्ञानयोग) 105 वास्तविक प्रकृति को पहचानने की है। 45 अपनी वास्तविक प्रकृति को कैसे पहचानें ? इसके साधन के रूप में गीता भी भेद-विज्ञान को स्वीकार करती है। गीता का तेरहवाँ अध्याय हमें भेद-विज्ञान सिखाता है, जिसे गीताकार ने 'क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-ज्ञान' कहा है। गीताकार ज्ञान की व्याख्या करते हुए कहता है कि क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ को जानने वाला ज्ञान ही वास्तविक ज्ञान है। 46 गीता के अनुसार यह शरीर क्षेत्र है और इसको जानने वाला ज्ञायक स्वभाव-युक्त आत्मा ही क्षेत्रज्ञ है। वस्तुतः, समस्त जगत्, जो ज्ञान का विषय है, वह क्षेत्र है और परमात्मस्वरूप विशुद्ध आत्म-तत्त्व जो ज्ञाता है, क्षेत्रज्ञ है। इन्हें क्रमशः प्रकृति और पुरुष भी कहा जाता है। इस प्रकार, क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ, प्रकृति और पुरुष या अनात्म और आत्म का यथार्थ विवेक या भिन्नता का बोध ही ज्ञान है। गीता में सांख्य शब्द आत्म-अनात्म के ज्ञान के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है और उसकी व्याख्या में आचार्य शंकर ने यही दृष्टि अपनायी है। वे लिखते हैं कि यह त्रिगुणात्मक जगत् या प्रकृति ज्ञान का विषय है, मैं उनसे भिन्न हूँ (क्योंकि ज्ञाता और ज्ञेय, द्रष्टा और दृश्य एक नहीं हो सकते हैं),उनके व्यापारों का द्रष्टा या साक्षीमात्र हूँ, उनसे विलक्षण हूँ। इस प्रकार, आत्मस्वरूप का चिन्तन करना ही सम्यग्ज्ञान है। ज्ञायकस्वरूप आत्मा को अपने यथार्थ स्वरूप के बोध के लिए जिन अनात्म तथ्यों से विभेद स्थापित करना होता है, वे हैं - पंचमहाभूत, अहंभाव, विषययुक्त बुद्धि, सूक्ष्म प्रकृति , पांचज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, मन , रूप, रस, गन्ध, शब्द और स्पर्श-पाँचों इन्द्रियों के पाँच विषय, इच्छा, द्वेष, सुख-दुःख, स्थूल देह का पिण्ड (शरीर) सुखदुःखादिभावों की चेतना और धारणा। ये सभी क्षेत्र हैं, अर्थात् ज्ञान के विषय हैं और इसलिए ज्ञायक-आत्मा इससे भिन्न है। गीता यह मानती है कि आत्मा को अनात्म से अपनी भिन्नता का बोध न होना ही बन्धन का कारण है। जब यह पुरुष प्रकृति से उत्पन्न हुए त्रिगुणात्मक पदार्थों को प्रकृति में स्थित होकर भोगता है, तो अनात्म प्रकृति में आत्मबुद्धि के कारण ही वह अनेक अच्छी-बुरी योनियों में जन्म लेता है। 50 दूसरे शब्दों में, अनात्म में आत्म-बुद्धि करके जब उसका भोग किया जाता है, तो उस आत्मबुद्धि के कारण ही आत्मा बन्धन में आ जाता है। वस्तुतः, इस शरीर में स्थित होता हुआभी आत्मा इससे भिन्न ही है, यही परमात्मा है। यह परमात्मस्वरूप आत्मा शरीर आदि विषयों में आत्मबुद्धि करके ही बन्धन में है। जब भी इसे भेद-विज्ञान के द्वारा अपने यथार्थ स्वरूप का बोध हो जाता है, वह मुक्त हो जाता है। अनात्म के प्रति आत्म-बुद्धि को समाप्त करना-यही भेदविज्ञान है और यही क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-ज्ञान है। इसी के द्वारा अनात्म एवं आत्म के यथार्थ स्वरूप का बोध होता है। यही मुक्ति का मार्ग है। गीता कहती है, जो व्यक्ति अनात्म त्रिगुणात्मकप्रकृति और परमात्मस्वरूप ज्ञायक-आत्मा के यथार्थ स्वरूप को तत्त्वदृष्टि से जान लेता है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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