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________________ 104 भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन “भिक्षुओं! अतीत और अनागत-रूप अनात्म हैं, वर्तमान का क्या कहना ? शब्द .....। गन्ध ....। रस ......। स्पर्श .....। धर्म ......।" "भिक्षुओं ! इसे जानकर पण्डित आर्यश्रावक अतीत-रूप में भी अनपेक्ष होता है, अनागत-रूप का अभिनन्दन नहीं करता और वर्तमान रूप के निर्वेद, विराग और विरोध के लिए यत्नशील होता है। शब्द ...... । गन्ध ...... । रस ...... । स्पर्श ......। धर्म ...... 143 इस प्रकार, हम देखते हैं कि दोनों विचारणाएँ भेदाभ्यास या अनात्म-भावना के चिन्तन में एक-दूसरे के अत्यन्त निकट हैं। बौद्ध-विचारणा में समस्त जागतिक-उपादानों को 'अनात्म' सिद्ध करने का आधार है-उनकी अनित्यता एवं तज्जनित दुःखमयता। जैन-विचारणा ने अपने भेदाभ्यास की साधना में जागतिक-उपादानों में अन्यत्व-भावना का आधार उनकी सांयोगिक-उपलब्धि को माना है, क्योंकि यदि सभी संयोगजन्य हैं, तो निश्चय ही संयोग कालिक होगा और इस आधार पर वह अनित्य भी होगा। बुद्ध और महावीर-दोनों ने ज्ञान के समस्त विषयों में 'स्व' या आत्मा का अभाव देखा और उनमें ममत्व-बुद्धि के निषेध की बात कही, लेकिन बुद्ध ने साधना की दृष्टि से यहीं विश्रान्ति लेना उचित समझा। उन्होंने साधक को यही कहा कि तुझे यह जान लेना है कि 'पर' या अनात्म क्या है, 'स्व' को जानने का प्रयास करना व्यर्थ है। इस प्रकार, बुद्ध ने मात्र निषेधात्मक-रूप में अनात्म का प्रतिबोध कराया, क्योंकि आत्म के प्रत्यय में उन्हें अहं, ममत्व या आसक्ति की ध्वनि प्रतीत हुई । महावीर की परम्परा ने अनात्म के निराकरण के साथ आत्मा के स्वीकरण को भी आवश्यक माना । पर या अनात्म का परित्याग और स्व या आत्मका ग्रहण-यह दोनों प्रत्यय जैन-विचारणा में स्वीकृतरहे हैं । आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं , यह शुद्धात्मा जिस तरह पहले प्रज्ञा से भिन्न किया था, उसी तरह प्रज्ञा के द्वारा ग्रहण करना, लेकिन जैन और बौद्ध-परम्पराओं का यह विवाद इसलिए अधिक महत्वपूर्ण नहीं रहता है कि बौद्ध-परम्परा ने आत्म शब्द से मेरा'-यह अर्थ ग्रहण किया, जबकि जैन-परम्परा ने आत्मा को परमार्थ के अर्थ में ग्रहण किया। वस्तुतः, राग का प्रहाण हो जाने पर 'मेरा' तो शेष रहता ही नहीं, रहता है मात्र परमार्थ । चाहे उसे आत्मा कहें, चाहे शून्यता, विज्ञान या परमार्थ कहें, अन्तर शब्दों में हो सकता है, मूल भावना में नहीं। . गीता में आत्म-अनात्म विवेक (भेद-विज्ञान)-गीता का आचार-दर्शन भी अनासक्त-दृष्टि से उदय और अहं के विगलन को नैतिक-साधना का महत्वपूर्ण तथ्य मानता है। डॉ. राधाकृष्णन् के शब्दों में, हमें उद्धार की उतनी आवश्यकता नहीं है, जितनी अपनी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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