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सम्यग्ज्ञान (ज्ञानयोग)
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नहीं रहते। ज्ञान का यही स्वरूप नैतिक-जीवन का निर्माण कर सकता है। इसमें ज्ञान और आचरण-दोनों एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। सन्दर्भ ग्रन्थ1. अन्नाणी किं काही किं वा नाहिइ छेय-पावगं ? दशवैकालिक, 4/10 (उत्तरार्द्ध) 2. पढ़मं नाणं तओ दया एवं चिटठ्इ सव्वसंजए। वही, 4/10 (पूर्वार्द्ध) 3. वही, 4/14-27 4. उत्तराध्ययन, 32/2 5. दर्शनपाहुड, 31 6. समयसार, 72 7. सुत्तनिपात, 38/6-7 8. धम्मपद, 372 9. गीता (शां.), 2/10 10. गीता, 4/40 11. वही, 4/36 12. वही, 4/37 13. वही, 4/38 14. ज्ञानसार 5/2 15. अभिधान राजेन्द्र, खण्ड 7, पृ. 515 16. वही, पृ. 514 17. गीता, 10/4 18. वही, 18/19 19. तत्त्वार्थसूत्र, 1/9 20. योगदृष्टिसमुच्चय 119 21. त्रिंशिका 29, उद्धृत महायान, पृ. 72 22. स्पीनोजा और उसका दर्शन, पृ. 86-87 23. समयसार, 144 24. सययसारटीका, 93 25. त्रिंशिका 29-30 उद्धृत महायान, पृ. 70-71 26. गीता, 6/4 27. गीता, 2/44
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