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सम्यग्ज्ञान (ज्ञानयोग)
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जाना जाए। केनोपनिषद् में कहा है कि वहाँ तक न नेत्रेन्द्रिय जाती है, न वाणी जाती है, न मन ही जाता है, अतः किस प्रकार उसका कथन किया जाए ? वह हम नहीं जानते । वह हमारी समझ में नहीं आता। वह विदित से अन्य ही है तथा अविदित से भी परे है,5 जो वाणी से प्रकाशित नहीं है, किन्तु वाणी ही जिससे प्रकाशित होती है, 6 जो मन से मनन नहीं किया जा सकता, बल्कि मन ही जिससे मनन किया हुआ कहा जाता है, जिसे कोई नेत्र द्वारा देख नहीं सकता, वरन् जिसकी सहायता से नेत्र देखते हैं, ” जो कान से नहीं सुना जा सकता, वरन् श्रोत्रों में ही जिससे सुनने की शक्ति आती है। वास्तविकता यह है कि आत्मा समग्र ज्ञान का आधार है, वह अपने द्वारा नहीं जाना जा सकता। जो समग्र ज्ञान के आधार में रहा है, उसे उस रूप से तो नहीं जाना जा सकता, जिस रूप में हम सामान्य वस्तुओं को जानते हैं। जैन-विचारक कहते हैं कि जैसे सामान्य वस्तुएँ इन्द्रियों के माध्यम से जानी जाती हैं, वैसे आत्मा को नहीं जाना जा सकता। उत्तराध्ययन में कहा है कि आत्मा इन्द्रियग्राह्य नहीं है, क्योंकि वह अमूर्त है। पाश्चात्य-विचारकों में काँट भी यह मानते हैं कि आत्मा का ज्ञान ज्ञाता और श्रेय के आधार पर नहीं हो सकता, क्योंकि आत्मा के ज्ञान में ज्ञाता और ज्ञेय का भेद नहीं रह सकता, अन्यथा ज्ञाता के रूप में वह सदा ही अज्ञेय बना रहेगा। वहाँ तो जो ज्ञाता है, वही ज्ञेय है, यही आत्मज्ञान की कठिनाई है। बुद्धि अस्ति और नास्ति की विधाओं से सीमित है, वह विकल्पों से परे नहीं जा सकती, जबकि आत्मा या स्व तो बुद्धि की विधाओं से परे है। आचार्य कुन्दकुन्द ने उसे नयपक्षातिक्रान्त कहा है। बुद्धि की विधाएँ या नयपक्ष ज्ञायक-आत्मा के आधार पर ही स्थित हैं । वे आत्मा के समग्र स्वरूप का ग्रहण नहीं कर सकते। उसे तर्क और बुद्धि से अज्ञेय कहा गया है।
मैं सबको जान सकता हूँ, लेकिन उसी भाँति स्वयं को नहीं जान सकता। शायद इसीलिए आत्मज्ञान जैसी घटना भी दुरूह बनी हुई है, इसीलिए सम्भवत: आचार्य कुन्दकुन्द को भी कहना पड़ा, आत्मा बड़ी कठिनता से जाना जाता है। 41 निश्चय ही आत्मज्ञान वह ज्ञान नहीं है, जिससे हम परिचित हैं । आत्मज्ञान में ज्ञाता-ज्ञेय का भेद नहीं है, इसीलिए उसे परमज्ञान कहा गया है, क्योंकि उसे जान लेने पर कुछ भी जानना शेष नहीं रहता, फिर भी उसका ज्ञान पदार्थ-ज्ञान की प्रक्रिया से नितान्त भिन्न रूप में होता है। पदार्थ-ज्ञान में विषय-विषयी का सम्बन्ध है, आत्मज्ञान में विषय-विषयी का अभाव। पदार्थ-ज्ञान में ज्ञाता और ज्ञेय होते हैं, लेकिन आत्मज्ञान में ज्ञाता और ज्ञेय का भेद नहीं रहता। वहाँ तो मात्र ज्ञान होता है। वह शुद्ध ज्ञान है, क्योंकि उसमें ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेयतीनों अलग-अलग नहीं रहते। इस ज्ञान की पूर्ण शुद्धावस्था का नाम ही आत्मज्ञान है,
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