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भारतीय आचार- दर्शन: एक तुलनात्मक अध्ययन
की उत्कट वेदना से पुकार कर कहता है, "यह मैं कौन हूँ अथवा कैसा हूँ, इसको मैं नहीं जानता।”29 प्रमुख जैनागम आचारांगसूत्र का प्रारम्भ भी आत्म-जिज्ञासा से होता है। उसमें कहा है कि अनेक मनुष्य यह नहीं जानते कि मैं कहाँ से आया हूँ ? मेरा भवान्तर होगा या नहीं ? मैं कौन हूँ ? यहाँ से कहाँ जाऊँगा ?३० जैन-दर्शन का नैतिक आदर्श आत्मा को अपने शुद्ध स्वरूप में उपलब्ध करना है ।
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नैतिकता आत्मोपलब्धि का प्रयास है और आत्म-ज्ञान नैतिक-आदर्श के रूप में स्व-स्वरूप (परमार्थ) का ही ज्ञान है, जो अपने-आपको जान लेता है, उसे सर्वविज्ञात हो जाता है। महावीर कहते हैं कि एक (आत्मा) को जानने पर सब जाना जाता है। " उपनिषद् का ऋषि भी यही कहता है कि उस एक ( आत्मन्) को विज्ञात कर लेने पर सब विज्ञात हो जाता है । 32 जैन, बौद्ध और गीता की विचारणाएँ इस विषय में एकमत हैं कि अनात्म में आत्मबुद्धि, ममत्वबुद्धि या मेरापन ही बन्धन का कारण है। वस्तुतः, जो हमारा स्वरूप नहीं है, उसे अपना मान लेना ही बन्धन है, इसीलिए नैतिक जीवन में स्वरूपबोध आवश्यक माना गया। स्वरूप-ब - बोध जिस क्रिया से उपलब्ध होता है, उसे जैन-दर्शन में भेद - विज्ञान कहा गया है। आचार्य अमृतचन्द्रसूरि कहते हैं कि जो सिद्ध हुए हैं, वे भेद-विज्ञान से ही हुए हैं और जो कर्म से बंधे हैं, वे भेद-विज्ञान के अभाव में बंधे हुए हैं। ” भेद-विज्ञान का प्रयोजन आत्मतत्त्व को जानना है। नैतिक जीवन के लिए आत्मतत्त्व का बोध अनिवार्य है । प्राच्य एवं पाश्चात्य सभी विचारक आत्मबोध पर बल देते हैं। उपनिषद् के ऋषियों का संदेश है- आत्मा को जानो । पाश्चात्य विचारणा भी नैतिक जीवन के लिए आत्मज्ञान, आत्मस्वीकरण (श्रद्धा) और आत्मस्थिति को स्वीकार करती है ।
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आत्मज्ञान की समस्या - स्व को जानना अपने आप में एक दार्शनिक समस्या है, क्योंकि जो भी जाना जा सकता है, वह 'स्व' कैसे होगा ? वह तो 'पर' ही होगा । 'स्व' तो वह है, जो जानता है । स्व को ज्ञेय नहीं बनाया जा सकता । ज्ञान तो श्रेय का होता है, ज्ञाता का ज्ञान कैसे हो सकता है ? क्योंकि ज्ञान की प्रत्येक अवस्था में ज्ञाता ज्ञान के पूर्व उपस्थित होगा और इस प्रकार ज्ञान के हर प्रयास में वह अज्ञेय ही बना रहेगा । ज्ञाता को जानने की चेष्टा तो आँख को उसी आँख से देखने की चेष्टा जैसी बात है। जैसे नट अपने कंधे पर चढ़ नहीं सकता, वैसे ही ज्ञाता ज्ञान के द्वारा नहीं जाना जा सकता। ज्ञाता जिसे भी जानेगा, वह ज्ञान का विषय होगा और वह ज्ञाता से भिन्न होगा। दूसरे, आत्मा या ज्ञाता स्वतः के द्वारा नहीं जाना जा सकेगा, क्योंकि उसके ज्ञान के लिए अन्य ज्ञाता की आवश्यकता होगी और यह स्थिति हमें अनवस्था - दोष की ओर ले जाएगी।
इसीलिए, उपनिषद् के ऋषियों को कहना पड़ा कि अरे ! विज्ञाता को कैसे
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