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________________ सम्यग्ज्ञान (ज्ञानयोग) अवस्था ही ज्ञानात्मक-साधना की पूर्णता है। जैन, बौद्ध और गीता के आचार-दर्शन का साध्य ज्ञान की इसी पूर्णता को प्राप्त करना है। जैन-दृष्टि से यही केवलज्ञान है। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि जो सर्वनयों (विचार-विकल्पों) से शून्य है, वही आत्मा (समयसार) है और वही केवलज्ञान और केवलदर्शन कहा जाता है। आचार्य अमृतचन्द्र भी लिखते हैं -विचार की विधाओं से रहित, निर्विकल्प, स्व-स्वभाव में स्थित-ऐसा जो आत्मा का सार तत्त्व (समयसार) है, जो अप्रमत्त पुरुषों के द्वारा अनुभूत है, वही विज्ञान है, वही पवित्रपुराणपुरुष है। उसे ज्ञान (आध्यात्मिक-ज्ञान) कहा जाए, या दर्शन (आत्मानुभूति) कहा जाए, या अन्य किसी नाम से कहा जाए, वह एक ही है और अनेक नामों से जाना जाता है।24 बौद्ध-आचार्य भी इसी रूप में इस लोकोत्तर आध्यात्मिक-ज्ञान की विवेचना करते हैं। वह किसी भी बाह्य पदार्थ का ग्राहक नहीं होने से अचित्त' है, बाह्य-पदार्थों के आश्रय का अभाव होने से अनुपलब्ध है, वही लोकोत्तर-ज्ञान है। क्लेशावरणऔर ज्ञेयावरण के नष्ट हो जाने से वह आश्रित-चित्त (आलयविज्ञान) निवृत्त (परावृत्त) होता है, प्रवृत्त नहीं होता है। वही अनास्रवधातु (आवरणरहित), अतर्कगम्य, कुशल, ध्रुव, आनन्दमय, विमुक्तिकाय और धर्मकाय कहा जाता है। 25 गीता में भी कहा है कि जो सर्व-संकल्पों का त्याग कर देता है, वह योग-मार्ग में आरूढ़ कहा जाता है, क्योंकि समाधि की अवस्था में विकल्प या व्यवसायात्मिका-बुद्धि नहीं होती। डॉ. राधाकृष्णन् भी आध्यात्मिक-ज्ञान के सम्बन्ध में लिखते हैं कि (जब) वासनाएँ मर जाती हैं, तब मन में एक ऐसी शान्ति उत्पन्न होती है, जिससे आन्तरिकनिःशब्दता पैदा होती है। इस निःशब्दता में अन्तर्दृष्टि (आध्यात्मिक-ज्ञान) उत्पन्न होती है और मनुष्य वह बन जाता है, जो कि वह तत्त्वतः है।28। इस प्रकार, जैन, बौद्ध और गीता के आचार-दर्शन ज्ञान के इस आध्यात्मिक-स्तर पर ही ज्ञान की पूर्णता मानते हैं, लेकिन प्रश्न यह है कि इस ज्ञान की पूर्णता को कैसे प्राप्त किया जाए ? भारतीय आचार-दर्शन इस सन्दर्भ में जो मार्ग प्रस्तुत करते हैं, उसे भेदविज्ञान या आत्म-अनात्म-विवेक कहा जा सकता है। यहाँ भेद-विज्ञान की प्रक्रिया पर किंचित् विचार कर लेना उचित होगा। नैतिक-जीवन का लक्ष्य आत्मज्ञान-भारतीय नैतिक चिन्तन आत्म-जिज्ञासा से प्रारम्भ होता है। जब तक आत्म-जिज्ञासा उत्पन्न नहीं होती, तब तक नैतिक-विकास की ओर अग्रसर ही नहीं हुआ जा सकता। जब तक बाह्य-दृष्टि है और आत्म-जिज्ञासा नहीं है, तब तक जैन-दर्शन के अनुसार नैतिक-विकास सम्भव नहीं। आत्मा के सच्चे स्वरूप की प्रतीति होना ही नितांत आवश्यक है, यही सम्यग्ज्ञान है। ऋग्वेदका ऋषि इसीआत्मजिज्ञासा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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