SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 104
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भारतीय आचार - दर्शन: एक तुलनात्मक अध्ययन यही परमार्थज्ञान है, लेकिन प्रश्न तो यह है कि ऐसा विषय और विषयी से अथवा ज्ञाता और ज्ञेय से रहित ज्ञान उपलब्ध कैसे हो ? आत्मज्ञान की प्राथमिक विधि भेद - विज्ञान - यद्यपि यह सही है कि आत्मतत्त्व ज्ञाता ज्ञेयरूप ज्ञान के द्वारा नहीं जाना जा सकता, लेकिन अनात्म-तत्त्व तो ऐसा है, जिसे ज्ञाता - ज्ञेयरूप ज्ञान का विषय बनाया जा सकता है। सामान्य व्यक्ति भी इस साधारण ज्ञान के द्वारा इतना तो जान सकता है कि अनात्म या उसके ज्ञान के विषय क्या हैं । अनात्म के स्वरूप को जानकर उससे विभेद स्थापित किया जा सकता है और इस प्रकार परोक्ष विधि माध्यम से आत्मज्ञान की दिशा में बढ़ा जा सकता है। सामान्य बुद्धि चाहे हमें यह न बता सके कि परमार्थ का स्वरूप क्या है, लेकिन वह यह तो सहज रूप में बता सकती है कि यह परमार्थ नहीं है । यह निषेधात्मक विधि ही परमार्थ - बोध की एकमात्र पद्धति है, जिसके द्वारा सामान्य साधक परमार्थबोध की दिशा में आगे बढ़ सकता है। जैन, बौद्ध और वेदान्त की परम्परा में इस विधि का बहुलता से निर्देश हुआ है। इसे ही भेद - विज्ञान या आत्मअनात्मविवेक कहा जाता है। अगली पंक्तियों में हम इसी भेद-विज्ञान का जैन, बौद्ध और गीता के आधार पर वर्णन कर रहे हैं। 102 जैन- दर्शन में भेद - विज्ञान - आचार्य कुन्दकुन्द ने भेद - विज्ञान का विवेचन इस प्रकार किया है - रूप आत्मा नहीं है, क्योंकि वह कुछ नहीं जानता, अतः रूप अन्य है और आत्मा अन्य है । वर्ण आत्मा नहीं है, क्योंकि वह कुछ नहीं जानता, अतः वर्ण अन्य है और आत्मा अन्य है | गन्ध आत्मा नहीं है, क्योंकि वह कुछ नहीं जानता, अतः गन्ध अन्य है और आत्मा अन्य है। रस आत्मा नहीं है, क्योंकि वह कुछ नहीं जानता, अतः रस अन्य है और आत्मा अन्य है । स्पर्श आत्मा नहीं है, क्योंकि वह कुछ नहीं जानता, अत: स्पर्श अन्य है और आत्मा अन्य है। कर्म आत्मा नहीं है, क्योंकि कर्म कुछ नहीं जानते, अतः कर्म अन्य हैं, आत्मा अन्य है । अध्यवसाय आत्मा नहीं हैं, क्योंकि अध्यवसाय कुछ नहीं जानते (मनोभाव भी किसी ज्ञायक के द्वारा जाने जाते हैं, अतः वे स्वतः कुछ नहीं जानते - क्रोध के भाव को जानने वाला ज्ञायक उससे भिन्न है ), अतः अध्यवसाय अन्य हैं और आत्मा अन्य है । 42 आत्मा न नारक है, न तिर्यंच है, न मनुष्य है, न देव है, न बालक है, न वृद्ध है, न तरुण है, राग है, न द्वेष है, न मोह है, न क्रोध है, न मान है, न माया है, न लोभ है। वह इसका कारण भी नहीं है और कर्त्ता भी नहीं है ( नियमसार 78-81 ) । इस प्रकार, अनात्म-धर्मों (गुणों) चिन्तन के द्वारा आत्मा का अनात्म से पार्थक्य किया जाता है। यही प्रज्ञापूर्वक आत्मअनात्म में किया हुआ विभेद भेद-विज्ञान कहा जाता है। इसी भेद-विज्ञान के द्वारा अनात्म स्वरूपको जानकर उसमें आत्म- बुद्धि का त्याग करना ही सम्यग्ज्ञान की साधना है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy