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भारतीय आचारदर्शन में ज्ञान की विधाएँ
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आदर्श में सदैव यथार्थ बनने की क्षमता रहती है। सरल शब्दों में, गीतार्थ की आज्ञाओं का पालन सदैव सम्भव है, क्योंकि वे देशकाल एवं व्यक्ति की परिस्थिति को ध्यान में रखकर दी जाती हैं। वीतराग के द्वारा प्रणीत आगम निष्पक्ष बुद्धिसम्पन्न आचार्यों के द्वारा प्रणीत श्रुत और देशकालविज्ञ गीतार्थ की आज्ञाएँ सामान्य व्यक्ति की बौद्धिकता की अपेक्षा सदैव ही उच्च विवेक से सम्पन्न हैं, अत: उनको महत्व देने में मानवीय-बुद्धि की अवहेलना बिल्कुल नहीं है। 18. निश्चयदृष्टिसम्मत आचार की एकरूपता
भारतीय-आचारदर्शनों में तत्त्वमीमांसीय-निश्चयदृष्टि, आचारलक्षी-निश्चयदृष्टि और व्यवहारदृष्टि में एकरूपता निहित है। तत्त्वमीमांसामूलक निश्चयदृष्टि से प्रतिपादित सत्ता के स्वरूप और व्यवहारदृष्टि से प्रतिपादित आचार के नियमों में भिन्नता होते हुए भी आचारलक्षी-निश्चयदृष्टि के द्वारा प्रतिपादित नैतिक-दर्शन में एकरूपता दिखाई देती है। तत्त्वमीमांसामूलक-निश्चयदृष्टि की अपेक्षा आचारलक्षी-निश्चयदृष्टि की यह विशेषता है कि जहाँ तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में निश्चयदृष्टि द्वारा प्रतिपादित सत्ता का स्वरूप विभिन्न दर्शनों में भिन्न-भिन्न है, वहाँ आचारलक्षी-निश्चयदृष्टि से प्रतिपादित पारमार्थिक-नैतिकता (निश्चय-आचार) सभी मोक्षलक्षी-दर्शनों में एकरूप है। आचरण के नियमों का बाह्य रूप भिन्न-भिन्न होने पर भी उनका आन्तक पक्ष तथा लक्ष्य सभी दर्शनों में समान है। सभी मोक्षलक्षी-दर्शनों में नैतिक आदर्श (मोक्ष का स्वरूप) तत्त्वदृष्टि से भिन्न होते हुए भी लक्ष्य की दृष्टि से एक ही है और इसी एकरूपता के कारण आचार का नैश्चयिक-स्वरूप भी एक ही है। पं. सुखलालजी का कथन है कि यद्यपि जैनेतर सभी दर्शनों में निश्चयदृष्टिसम्मत तत्त्वनिरूपण एक नहीं है, तथापि सभी मोक्षलक्षी-दर्शनों में निश्चयदृष्टिसम्मत आचार व चारित्र एक ही हैं, भले ही परिभाषा या वर्गीकरण भिन्न-भिन्न हों। जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शन भी मोक्षलक्षी-दर्शन हैं और उसी के आधार पर नैतिक-आचरण का मूल्यांकन करते हैं, अत: नैश्चयिक-आचार की दृष्टि से उनमें बहुत अधिक साम्यता पाई जाती है। 19. निश्चय और व्यवहारदृष्टि का मूल्यांकन
___ यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि नैश्चयिक-आचार या नैतिकता के आन्तरिक स्वरूप और व्यावहारिक-आचार या नैतिकता के बाह्य-स्वरूप में आचारदर्शन की दृष्टि से कौन अधिक मूल्यवान है?
जैन-दर्शन की दृष्टि में इस प्रश्न का उत्तर यह है कि यद्यपि साधक की वैयक्तिकदृष्टि से नैतिकता का आन्तरिक पहलू या नैश्चयिक आचार महत्वपूर्ण है, लेकिन सामाजिक
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