SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 90
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 88 भारतीय आचारदर्शन एक तुलनात्मक अध्ययन समकक्ष मान सकते हैं। इस प्रकार, वैदिक-परम्परा के नीति के जानने के चारों उपाय किसी न किसी रूप में जैन-परम्परा में भी स्वीकृत हैं। जैन और वैदिक- दोनों परम्पराओं में यह भी स्वीकार किया गया है कि इन उपायों में एक पूर्वापरत्व का क्रम भी है। जैन आचार्यों ने स्पष्ट रूप से यह निर्देश दिया है कि पूर्व में आचरण के हेतु निर्देश की उपलब्धि होते हुए निम्न के आधार पर आचरण करना अनैतिकता है। 17. आक्षेप एवं समाधान जैन और वैदिक- दोनों परम्पराओं में व्यावहारिक आचरण के लिए जो आधार माने गए हैं, उनमें मानवीय-बुद्धि का आकलन नहीं किया गया है, ऐसा आक्षेप किया जा सकता है। वेद, स्मृति, सदाचार या आगम, श्रुत और आज्ञा आदि को अधिक महत्व देकर मानवीय बुद्धि को कम महत्व दिया गया है। लेकिन यह मान्यता भ्रान्त है। वस्तुतः, जिस बुद्ध को निम्न स्थान दिया जाता है, वह वासनात्मक या राग-द्वेष से ग्रसित बुद्धि ही है। सामान्य साधक, जो वासनामय जीवन या राग-द्वेष से ऊपर नहीं उठ पाया, उसके विवेक के द्वारा किंकर्त्तव्यमीमांसा में गलत निर्णय की सम्भावना बनी रहती है। बुद्धि की इस अपरिपक्व दशा में यदि स्वनिर्णय का अधिकार प्रदान कर दिया जाए, तो यथार्थ कर्त्तव्यपथ से च्युति की सम्भावना ही अधिक रहती है। यदि मूल शब्द 'धारणा' को देखें, तो यह अर्थ और भी स्पष्ट हो जाता है। धारणा शब्द विवेकबुद्धि या निष्पक्षबुद्धि की अपेक्षा आग्रहबुद्धि का सूचक है और आग्रहबुद्धि से स्वार्थपरायणता या रूढ़ता के भाव ही प्रबल होते हैं, अत: ऐसी आग्रहबुद्धि को किंकर्त्तव्यमीमासा में अधिक उच्च स्थान नहीं दिया जा सकता। साथ ही, यदिधारणा या स्वविवेकको अधिक महत्व दिया जाएगा, तो नैतिक-प्रत्ययों की सामान्यता (वस्तुनिष्ठता) समाप्त हो जाएगी और नैतिकता के क्षेत्र में वैयक्तिकता का स्थान ही प्रमुख हो जाएगा। दूसरी ओर, यदि हम देखें तो आज्ञा, श्रुत और आगम भी अबौद्धिक नहीं हैं, वरन् उनमें क्रमश: बुद्धि की उज्ज्वलता या निष्पक्षता ही बढ़ती जाती है। आज्ञा देने के योग्य जिस गीतार्थ का निर्देश जैनागमों में किया गया है, वह एक ओर देश, काल एवं परिस्थिति को यथार्थ रूप में समझता है, तो दूसरी ओर आगम-ग्रन्थों का मर्मज्ञ भी होता है। वस्तुत:, वह आदर्श (आगमिक-आज्ञाएँ) एवं यथार्थ (वास्तविक परिस्थितियों) के मध्य समन्वय कराता है। वह यथार्थ को दृष्टिगत रखते हुए आदर्श को इस रूप में प्रस्तुत करता है कि उसे यथार्थ बनाया जा सके। गीतार्थ (विज्ञ) की आज्ञाएँ नैतिक-जीवन का एक ऐसा सत्य है कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy