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भारतीय आचारदर्शन में ज्ञान की विधाऍ
2. श्रुत-व्यवहार- श्रुत का सामान्य अर्थ गणधरों के अतिरिक्त अन्य पूर्वाचार्यों द्वारा प्रणीत साहित्य से है। जब किसी परिस्थिति- विशेष में आचरण के सम्बन्ध में आगमों में कोई स्पष्ट निर्देश न मिलता हो, या आगम अनुपलब्ध हो, तो पूर्वाचार्यों के ग्रन्थों एवं टीकाओं में वर्णित आचार के नियमों के आधार पर आचरण करना श्रुतव्यवहार है। कुछ आचार्यों ने श्रुत का अर्थ अभिधारण या परम्परा भी किया है, अतः श्रुत-व्यवहार का अर्थ यह भी हो सकता है कि पूर्वाचार्यों से जो कुछ सुन रखा हो, अथवा प्राचीन समय में ऐसी विशेष परिस्थिति में कैसा व्यवहार किया गया था, उसके
आधार पर आचरण करना ।
अवस्था-1
3. आज्ञा - व्यवहार - किसी देश, काल एवं परिस्थिति के आधार पर उत्पन्न - विशेष में किस प्रकार आचरण करना चाहिए, इसके सम्बन्ध में आगमों एवं पूर्वाचार्यों के ग्रन्थों में कोई निर्देश उपलब्ध न हो, तो ऐसी स्थिति में वरिष्ठजन, गुरुजन या देशकालविज्ञ विद्वान् (गीतार्थ) की आज्ञा के अनुरूप आचरण करना आज्ञा- व्यवहार है।
4. धारणा - व्यवहार - यदि परिस्थिति ऐसी हो कि जिसके सम्बन्ध में आगमों एवं पूर्वाचार्यों के ग्रन्थों में कोई निर्देश न हो और यह भी सम्भव न हो कि किसी दूरस्थ विज्ञ गुरु से कोई निर्देश प्राप्त किया जा सके, तो कर्त्तव्य का निश्चय स्वविवेक एवं मान्यता के आधार पर करना धारणा व्यवहार है।
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5. जीत-व्यवहार- यदि परिस्थिति ऐसी हो कि उपर्युक्त में से कोई भी साधन सुलभ न हो, तो लोक - परम्परा के आधार पर आचरण करना जीत - व्यवहार है। व्यवहार के पाँच आधारों की वैदिक परम्परा से तुलना
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वैदिक-परम्परा में मनु ने आचरण के निर्णय के चार आधार प्रस्तुत किए हैं। उन्होंने कहा है कि वेद (ऋषियों का ज्ञान), स्मृति (धर्मशास्त्र), सदाचार और आत्मतुष्टि - ये चार धर्म या नीति को जानने के उपाय हैं। 47 जिस प्रकार जैन - परम्परा में आगमव्यवहार नीतिज्ञान का सर्वोच्च उपाय है, उसी प्रकार मनु ने भी वेद को नीति के ज्ञान का सर्वोच्च उपाय माना है । जिस प्रकार जैन - परम्परा में आगम के बाद श्रुत का स्थान है, उसी प्रकार वैदिकपरम्परा में वेद के बाद स्मृति का स्थान है। वेद और स्मृति के बाद वैदिक परम्परा में नीति के जानने का उपाय सदाचार बताया गया है। मनु ने स्वयं सदाचार की व्याख्या 'परम्परागत व्यवहार' के रूप में की है। 8 इस रूप में वह जीतव्यवहार से तुलनीय है। यदि हम श्रुत का अर्थ परम्परा करते हैं, तो उस स्थिति में उसकी तुलना श्रुतव्यवहार से भी की जा सकती है। मनु ने नीति के जानने का चौथा उपाय आत्मतुष्टि माना है। उसे किसी रूप में धारणा के
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