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भारतीय आचारदर्शन एक तुलनात्मक अध्ययन
दृष्टि से आचरण के बाह्य-पक्ष या व्यावहारिक-नैतिकता की अवहेलना नहीं की जा सकती। जैन नैतिक-दर्शन यह मानकर चलता है कि यथार्थ नैतिक-जीवन में निश्चयआचार और व्यावहारिक-आचार में एकरूपता होती है। आचरण के आन्तरिक एवं बाह्य-पक्षों में कोई अन्तर नहीं होता। विशुद्ध मनोभावों की अवस्था में अनैतिकआचरण सम्भव ही नहीं होता। इतना ही नहीं, जैन-आचारदर्शन के अनुसार नैतिकपूर्णता की प्राप्ति के पश्चात् भी व्यक्ति को नैतिकता के बाह्य-नियमों एवं विधि-विधानों का पालन यथावत् करते रहना चाहिए। आवश्यकनियुक्ति एवं आत्मसिद्धिशास्त्र में कहा गया है कि यदि शिष्य नैतिक-पूर्णता को प्राप्त कर लेता है और आचार्य उस पूर्णता को प्राप्त न कर पाया हो, तो भी संघ की मर्यादा के लिए शिष्य को गुरु की यथावत् सेवा करनी चाहिए। इस प्रकार, जैन-आचारदर्शन यह स्पष्ट कर देता है कि आन्तरिक दृष्टि से नैतिक-पूर्णता को प्राप्त कर लेने पर भी बाह्य (समाजसापेक्ष) नैतिक नियमों का परिपालन आवश्यक है। इस प्रकार, वह निश्चयदृष्टि पर बल देते हुए भी व्यवहार का लोप स्वीकार नहीं करता। इतना ही नहीं, वह यह भी कहता है कि परमार्थ की उपलब्धि हो जाने पर भी व्यवहारधर्म, संघ-मर्यादाओं एवं सामाजिक नैतिक-नियमों का परिपालन आवश्यक है।
गीता और बौद्ध-आचारदर्शन भी वैयक्तिक-दृष्टि से आचरण के आन्तरिक पक्ष पर यथेष्ट बल देते हुए भी लोकव्यवहार का आचरण आवश्यक मानते हैं। गीता स्पष्ट रूप से कहती है कि जिस प्रकार सामान्यजन लोकव्यवहार का आचरण करता है, विद्वान् भी अनासक्त होकर उसी प्रकार लोकव्यवहार का आचरण करता रहे।'2 गीता में प्रतिपादित स्वधर्म, वर्णधर्म और लोकसंग्रह के सिद्धान्त इसी का समर्थन करते हैं। बौद्ध-आचारदर्शन में भी यह माना गया है कि अर्हतावस्था को प्राप्त कर लेने पर भी संघीय-जीवन के बाह्यनियमों का यथावत् पालन करते रहना चाहिए। इस प्रकार, जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों में नैतिक-जीवन के आन्तरिक-स्वरूप या निश्चय-आचार पर वैयक्तिकदृष्टि से पर्याप्त महत्व देते हुएभी व्यावहारिक-दृष्टि से आचरण के बाह्य-पक्षों को उपेक्षणीय नहीं माना गया है। वैयक्तिक-दृष्टि से आचरण का आन्तरिक पक्ष महत्वपूर्ण है, लेकिन सामाजिक-दृष्टि से आचरण का बाह्य-पक्ष भी महत्वपूर्ण है। सामान्यतया, दोनों में कोई तुलना भी नहीं की जा सकती, क्योंकि निश्चयलक्षी-आचार का महत्व व्यक्तिगत और समाजगत- ऐसे दो आधारों पर है। दोनों में से किसी एक को छोड़ा भी नहीं जा सकता, क्योंकि व्यक्ति अपने-आप में व्यक्ति और समाज- दोनों का है। जैन-दृष्टि के अनुसार
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