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भारतीय आचारदर्शन एक तुलनात्मक अध्ययन
नैतिक-मूल्यांकन के लिए इस बात का विचार नहीं करती है कि कर्म का समाज पर क्या परिणाम हुआ। वह नैतिक मूल्यों का अंकन सामाजिक-दृष्टि से नहीं, वरन् वैयक्तिक एवं आध्यात्मिक-दृष्टि से करती है। वह समाज-सापेक्ष न होकर व्यक्तिसापेक्ष होती है। आचार्य अमृतचन्द्र समयसारटीका में इसी बात को स्पष्ट करते हैं कि निश्चयनय आत्माश्रित है और व्यवहारनय पराश्रित (समाज-सोपक्ष) है।42 जैनविचारणा के अनुसार व्यक्ति की आन्तरिक वासनाओं का सम्बन्ध 'नैश्चयिकनैतिकता' से है। व्यक्ति में वासनाओं एवं तृष्णा की अग्नि जिस मात्रा में शान्त होती है, उसी मात्रा में वह निश्चय-आचार की दृष्टि से विकास की दिशा में बढ़ा हुआ माना जाता है। नैश्चयिक-नैतिकता क्रिया या आचरण की अवस्था नहीं, वरन् अनुभूति या साक्षात्कार की अवस्था है। इसमें शुभाशुभत्व का माप इस आधार पर नहीं होता कि व्यक्ति क्या करता है, वरन् इस आधार पर होता है कि वह अपने स्वस्वरूप को कहाँ तक पहचान पाया है और कहाँ तक उसके निकट हो पाया है। आत्मोपलब्धि या परमार्थ का साक्षात्कार ही नैतिक-जीवन का परमादर्श है और इस आदर्श के सन्दर्भ में
आन्तरिक-वृत्तियों का आकलन करना ही पारमार्थिक या नैश्चयिक-नैतिकता का प्रमुख कार्य है। व्यक्ति के आन्तरिक-विचलन और आन्तरिक-समत्व का आकलन निश्चयदृष्टि का क्षेत्र है। निश्चयदृष्टि नैतिक-आचरण का मूल्यांकन उसके आन्तरिक पक्ष, प्रयोजन एवं उसकी लक्ष्योन्मुखता के आधार पर करती है। वह नैतिकता के अध्ययन में कर्म के संकल्पात्मक पक्ष को ही अधिक महत्व देती है।
लेकिन, नैतिकता मात्र संकल्पही नहीं है। नैतिक-जीवन के लिए संकल्पआवश्यक है, परन्तु ऐसा संकल्प, जिसमें क्रियान्वयन का प्रयास न हो, तो वह सच्चा संकल्प नहीं होता है, इसीलिए यह माना गया कि नैतिक-जीवन में संकल्प को मात्र संकल्प नहीं रहना चाहिए, वरन् कार्यरूप में परिणत भी होना चाहिए और संकल्प की कार्यरूप परिणति हमारे सामने नैतिकता का दूसरा पक्ष प्रस्तुत करती है। मात्र संकल्प तो व्यक्ति तक सीमित रह सकता है, उसका समाज पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, वह समाज-निरपेक्ष हो सकता है, लेकिन जब संकल्प कार्य में परिणत किया जाता है, तब वह मात्र वैयक्तिक नहीं रहता, वरन् सामाजिक बन जाता है, अत: नैतिकता का विचार केवल निश्चयदृष्टि से ही नहीं किया जा सकता। ऐसा मूल्यांकन आंशिक एवं अपूर्ण ही होगा। नैतिकता के समुचित मूल्यांकन के लिए नैतिकता के बाह्य सामाजिक-पक्ष पर भी विचार करना जरूरी है, लेकिन वह सीमाक्षेत्र आचारलक्षी-निश्चयदृष्टि का नहीं, व्यवहारदृष्टि का है।
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