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________________ 82 भारतीय आचारदर्शन एक तुलनात्मक अध्ययन changes) और दूसरा विभावपर्याय या विरूप-परिवर्तन (Heterogenous changes)। जैन-नैतिकता का आदर्श मात्र आत्मा को विभावपर्याय की अवस्था से स्वभावपर्याय अवस्था में लाना है। इस प्रकार, जैन-नैतिकता सत् के द्रव्यार्थिक-पक्ष को अपने विवेचन का विषय न बनाकर सत् के पर्यायार्थिक-पक्ष को ही विवेचन का विषय बनाती है, जिसमें स्वभावपर्यायावस्था को प्राप्त करना ही उसका नैतिक आदर्श है। ‘स्वभावपर्याय तत्त्व के निजगुणों के कारण होती है एवं अन्य तत्त्वों से निरपेक्ष होती है। इसके विपरीत, अन्य तत्त्व से सापेक्ष विभावपर्याय होती है, अत: नैतिकता के प्रत्यय की दृष्टि से आत्मा का स्वभावदशा में रहना नैतिकता का निरपेक्ष स्वरूप है। इसी को आचारलक्षी-निश्चयनय कहा जा सकता है, क्योंकि जैन-दृष्टि से सारे नैतिक-आचरण का सार या साध्य यही है, जिसे किसी अन्य का साधन नहीं माना जा सकता। यही स्वलक्ष्य मूल्य (End in itself) है, शेष सारा आचरण इसी के लिए है, अत: साधनरूप है, सापेक्ष है और इस कारण मात्र व्यावहारिक है। 14. आचारदर्शन के क्षेत्र में निश्चयदृष्टि और व्यवहारदृष्टि का अर्थ निश्चयनय का अर्थ जैन-आचारदर्शन का नैतिक आदर्श मोक्ष है, अतएव जो आचार सीधे रूप में मोक्षलक्षी है, वह निश्चय-आचार है। आचरण का वह पक्ष, जिसका सीधा सम्बन्ध बन्धन और मुक्ति से है, निश्चय-आचार है। वस्तुतः, बन्धन और मुक्ति का सीधा कारण आचरण का बाह्य-स्वरूप नहीं होता, वरन् व्यक्ति की आन्तरिक मनोवृत्तियाँ ही होती हैं, अत: वे आन्तरिक मनोवृत्तियाँ, जो बन्धन और मुक्ति का सीधा कारण बनती हैं, आचारदर्शन के क्षेत्र में निश्चयनय (परमार्थदृष्टि) के सीमाक्षेत्र में आती हैं। राग, द्वेष और मोह की वह दृष्टि, जो बाह्य-आचरण या क्रियाकलापों से निरपेक्ष, मात्र कर्ता के प्रयोजन को लक्ष्य में रखकर शुभाशुभता का विचार करती है, निश्चयदृष्टि है।'' आचारदर्शन के क्षेत्र में भी निश्चय आचार सदैव एकरूप ही होता है। निश्चयदृष्टि से जो शुभ है, वह सदैव शुभ है और जो अशुभ है, वह सदैव अशुभ है। देश, काल एवं वैयक्तिक दृष्टि से भी उसमें अन्तर नहीं आता। वैचारिक या मनोजन्य अध्यवसायों को शुभत्व और अशुभत्व देशकालगत भेदों से नहीं बदलता, उसमें अपवाद के लिए कोई गुंजाइश नहीं। व्यावहारिक नैतिकता में या आचरण के बाह्य-भेदों में भी उसकी एकरूपता बनी रह सकती है। पं. सुखलालजी के शब्दों में, 'निश्चय-आचार की (एक ही) भूमिका पर वर्तमान एक ही व्यक्ति अनेकविध व्यावहारिक आचारों में से गुजरता है। इतना ही नहीं, इसके विपरीत आचरण की बाह्य एकरूपता में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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