________________
भारतीय आचारदर्शन में ज्ञान की विधाएँ
साधारण रूप में सम्भव नहीं होती, जबकि आचार के क्षेत्र में आचरण से भिन्न आन्तरिकवृत्तियों का अनुभव होता है।
तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में निश्चयदृष्टि आत्मा के बन्धन, मुक्ति, कर्तृत्व, भोक्तृत्व आदि प्रत्ययों को महत्व नहीं देती। वे उसके लिए गौण हैं, क्योंकि वे आत्मा की पर्यायदशा को ही सूचित करते हैं। आचारलक्षी - निश्चयदृष्टि में तो बन्धन और मुक्ति या आत्मा का कर्तृत्व एवं भोक्तृत्व ऐसी मौलिक धारणाएँ हैं, जिन्हें वह स्वीकार करके ही आगे बढ़ती है। यही कारण है कि आचार्य कुन्दकुन्द ने निश्चयनय में दो भेद स्वीकार किए। आचार्य कुन्दकुन्द तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में प्रयुक्त होने वाली निश्चयनय (परमार्थदृष्टि) को शुद्धनिश्चयनय कहते हैं और आचारलक्षी - निश्चयदृष्टि को अशुद्धनिश्चयनय कहते हैं। कुछ आचार्यों ने निश्चयनय के द्रव्यार्थिक- निश्चयनय और पर्यायार्थिक-निश्चयनय - ऐसे दो विभाग किए हैं। बौद्धों
स्वतन्त्र माध्यमिक सम्प्रदाय में भी परमार्थ के दो विभाग किए गए हैं- 'पर्यायपरमार्थ और अपर्यायपरमार्थ ।'” तुलनात्मक दृष्टि से हम देखते हैं कि अपर्यायपरमार्थ को सर्वप्रपंचवर्जित कहा गया है, जो जैनदर्शन के शुद्धनिश्चयनय का ही समानार्थक है और पर्यायपरमार्थ अशुद्धनिश्चयनय या पर्यायार्थिक- निश्चयनय का समानार्थक है।
13. द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिकनयों की दृष्टि से नैतिकता का विचार
इसी तथ्य को जैन- विचारणा के अनुसार एक दूसरे प्रकार से प्रस्तुत किया जा सकता है। जैनागमों में द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक - ऐसे दो दृष्टिकोण या नय स्वीकार किए गए हैं। जैन-दर्शन जड़ और चेतन, उभय परमतत्त्वों की दृष्टि से नित्य - परिणामवाद मानता है। सांख्यदर्शन केवल प्रकृतिपरिणामवाद मानता है। गीता में भी प्रकृतिपरिणामवाद माना गया है। सत् का एक पक्ष वह है, जिसमें वह प्रतिक्षण बदलता रहता है, जबकि दूसरा पक्ष वह है, जो इन परिवर्तनों के पीछे है, लेकिन नैतिकता की समग्र विवेचना तो सत् के इस परिवर्तनशील पक्ष के लिए है। नैतिकता एक गत्यात्मकता है, एक प्रक्रिया है, एक होना है (Becoming), जो परिवर्तन की दशा में ही सम्भव है। उस अपरिवर्तनीय पक्ष की दृष्टि से
मात्र सत्ता (Being) है, कोई नैतिक विचारणा सम्भव ही नहीं। जैन- विचारणा भी नहीं कहती कि हमारा नैतिक आदर्श परिवर्तनशीलता (Becoming) से अपरिवर्तनशीलता (Nonbecoming) की अवस्था को प्राप्त करना है, क्योंकि सत् यदि उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य गुणयुक्त है, तो फिर मोक्ष-अवस्था में यह भी सम्भव नहीं है। जैन- विचारणा मोक्षावस्था में भी मात्र ज्ञानदृष्टि से आत्मा का परिणामीपन स्वीकार करती है। जैन विचारणा के अनुसार पर्याय (Modes) दो प्रकार के होते हैं- एक स्वभावपर्याय (Homogenous
Jain Education International
81
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org