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भारतीय आचारदर्शन एक तुलनात्मक अध्ययन
आचार - दोनों क्षेत्रों में लागू की गई हैं।' इतर सभी भारतीय दर्शनों की तरह जैन- दर्शन में भी तत्त्वज्ञान और आचार - दोनों का समावेश है। निश्चयनय और व्यवहारनय का प्रयोग तत्त्वज्ञान और आचार - दोनों में होता है, लेकिन सामान्यत: शास्त्राभ्यासी इस अन्तर को जान नहीं पाता। तात्त्विक-निश्चयदृष्टि और आचारविषयक- निश्चयदृष्टि - दोनों एक नहीं हैं। यही बात उभयविषयक - व्यवहारदृष्टि की है। निश्चयनय और व्यवहारनय- ये दो शब्द भले ही समान हों, पर तत्त्वज्ञान और आचार के क्षेत्र में भिन्न-भिन्न अभिप्राय रखते हैं और विभिन्न परिणामों पर पहुँचाते हैं।
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आचारगामी निश्चयदृष्टि या व्यवहारदृष्टि मुख्यतया मोक्षपुरुषार्थ की दृष्टि से विचार करती है, जबकि तत्त्वनिरूपक निश्चय और व्यवहार- - दृष्टि केवल जगत् के स्वरूप का विचार करती है। संक्षेप में, तत्त्वनिरूपण की दृष्टि से 'क्या है' यह महत्वपूर्ण है और आचारनिरूपण में 'क्या होना चाहिए' यह महत्वपूर्ण है। वस्तुतः, तत्त्वज्ञान की विधायक (Positive) एवं व्याख्यात्मक प्रकृति और आदर्श दर्शन की नियामक (Normative) एवं आदर्शमूलक प्रकृति ही इनमें यह अन्तर बना देती है। तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में निश्चयदृष्टि यह
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है कि सत्ता का मूल स्वरूप क्या है और व्यवहारदृष्टि यह बताती है कि सत्ता किस रूप प्रतीत हो रही है, उसका इन्द्रियगाह्य (स्थूल) स्वरूप क्या है ? और आचारदर्शन के क्षेत्र में निश्चयदृष्टि कर्त्ता के प्रयोजन अथवा कर्म की आदर्शोन्मुखता के आधार पर उसकी शुभाशुभता का मूल्यांकन करती है। निश्चयनय में आचार का बाह्य पक्ष महत्वपूर्ण नहीं होता, वरन् उसका आन्तरिक पक्ष ही महत्वपूर्ण होता है। इसके विपरीत, आचार के क्षेत्र में व्यवहारदृष्टि के अनुसार आचरण के बाह्य-पक्ष पर अधिक विचार किया जाता है ।
दूसरा महत्वपूर्ण अन्तर यह है कि तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में निश्चयदृष्टिसम्मत तत्त्वों के स्वरूप का साधारण जिज्ञासुजन कभी भी साक्षात् नहीं कर पाते। हम तत्त्व का साक्षात्कार करने वाले अनुभवी व्यक्ति के कथन पर श्रद्धा रखकर ही वैसा स्वरूप मानते हैं, लेकिन आचार के बारे में ऐसी बात नहीं है। कोई जागरूक साधक अपनी आन्तरिक सत्असत् - वृत्तियों का व उनकी तीव्रता और मन्दता के तारतम्य का सीधा साक्षात् कर सकता है। संक्षेप में, नैश्चयिक - आचार का साक्षात्कार व्यक्ति के लिए सम्भव है, जबकि नैश्चयिक तत्त्व का साक्षात्कार प्रत्येक व्यक्ति के लिए सम्भव नहीं है। अपनी सत् एवं असत् आन्तरिक-वृत्तियों का हमें सीधा साक्षात्कार होता है। वे हमारी आन्तरिक अनुभूति के विषय हैं । तत्त्व के निश्चयस्वरूप का सीधा प्रत्यक्षीकरण सम्भव नहीं होता, वह तो मात्र बुद्धि की खोज है। तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में पर्यायों से भिन्न शुद्ध तत्त्व की उपलब्धि
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