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भारतीय आचारदर्शन में ज्ञान की विधाएँ
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उनके अनुसार तो जीव की सत्ता भी व्यावहारिक है।अत: उसका बन्धन और उसकी मुक्ति भी व्यावहारिक सत्य है।
__ यद्यपि यह सत्य है कि समग्र नैतिक-आचरण व्यवहारनय के क्षेत्र में ही आता है, तथापि जैन, बौद्ध और वैदिक-परम्पराओं में स्वीकृत नैतिक-जीवन का साध्य निश्चयनय या परमार्थदृष्टि का ही विषय है, अत: केवल यह मानना कि नैतिकता के क्षेत्र में व्यवहारदृष्टि ही एकमात्र अध्ययनविधि हो सकती है, एकांगी धारणा ही होगी। नैतिक साध्य स्वलक्षण या स्वभावदशा का सूचक है और इस रूप में वह द्रव्यदृष्टि, निश्चयनय या परमार्थदृष्टि काही विषय है। इस प्रकार, आचारदर्शन के क्षेत्र में निश्चय और व्यवहार- दोनों ही दृष्टिकोण अपेक्षित हैं। उसमें निश्चयदृष्टि का विषय नैतिक साध्य या आदर्श है और व्यवहारदृष्टि का विषय नैतिक-आचरण या कर्म है। फिर भी हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि आचारदर्शन के क्षेत्र में निश्चयनय का अर्थ तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में प्रयुक्त निश्चयनय से कुछ भिन्न है। 11. तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में निश्चयनय और व्यवहारनय का अर्थ
तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में निश्चयदृष्टि सत् के उस स्वरूप का प्रतिपादन करती है, जो सत् की त्रिकालाबाधित स्वभावदशा, उसका मूलस्वरूप और स्वलक्षण है, जो पर्याय या परिवर्तनों में भी सत्ता के सार के रूप में बना रहता है। निश्चयदृष्टि अभेदगामी सत्ता के शुद्धस्वरूप या स्वभावदशा की सूचक एवं बाह्य-निरपेक्ष परिणाम की व्याख्या करती है।'35
तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में व्यवहारदृष्टि सत्ता के उस पक्ष का प्रतिपादन करती है, जिसरूप में वह प्रतीत होती है। व्यवहारदृष्टि भेदगामी है और सत् के आगन्तुक लक्षणों या विभावदशा की सूचक है। सत् के परिवर्तनशील पक्ष का प्रस्तुतिकरण व्यवहारनय का विषय है। व्यवहारनय देश और काल-सापेक्ष है। व्यवहारदष्टि के अनुसार आत्मा जन्म भी लेती है और मरती भी है, वह बन्धन में भी आती है और मुक्त भी होती है। 12. तत्त्वज्ञान और आचारदर्शन के क्षेत्र में व्यवहारनय
और निश्चयनय का अन्तर
जैन-परम्परा में व्यवहार और निश्चय नामक दो नयों या दृष्टियों का प्रतिपादन किया जाता है। वे तत्त्वज्ञान और आचारदर्शन- दोनों क्षेत्रों पर लागू होती हैं, फिर भी
आचारदर्शन और तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में निश्चयदृष्टि और व्यवहारदृष्टि का प्रतिपादन भिन्नभिन्न अर्थों में हुआ है। पं. सुखलालजी इस अन्तर को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि जैनपरम्परा में जो निश्चय और व्यवहार-रूप से दो दृष्टियाँ मानी गई हैं, वे तत्त्वज्ञान और
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