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भारतीय आचारदर्शन एक तुलनात्मक अध्ययन
विकल्पात्मक ज्ञान विलुप्त हो जाता है। जिस प्रकार सामान्य जीवन में किसी रसानुभूति की अवस्था में विचार और विकल्प विलुप्त हो जाते हैं, उसी प्रकार निर्वाण या नैतिक साध्य की उपलब्धि में भी समग्र विकल्पात्मक ज्ञान का विलय हो जाता है। फिर भी, विकल्पात्मक आवश्यकता तब तक बनी रहती है, जब तक कि उस साध्य की उपलब्धि नहीं हो जाती। नैतिक साध्य की उपलब्धि तक व्यक्ति के लिए दृष्टिकोणों की आवश्यकता बनी रहती है।
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इस प्रकार, स्पष्ट है कि आचारदर्शन में कर्मों के शुभत्व एवं अशुभत्व के विवेचन के लिए तथा नैतिक साध्य के बोध के लिए सभी दृष्टिकोण या अध्ययन - विधियाँ आवश्यक हैं। फिर भी, यह विचार अपेक्षित है कि नैतिक-दर्शन में निश्चयनय और व्यवहारनय, या परमार्थदृष्टि और व्यवहारदृष्टि में कौन-सी उसके अध्ययन की प्रमुख विधि है । 10. क्या निश्चयनय या परमार्थदृष्टि नैतिक अध्ययन की विधि है ?
जैन-आचारदर्शन में शुद्ध निश्चयनय, अशुद्ध अनिश्चयनय और व्यवहारनय- ये तीन दृष्टिकोण मान्य हैं। इनमें से कौन-सा दृष्टिकोण आचारदर्शन की अध्ययनविधि हो सकता है ? वस्तुतः, आचरण का सारा क्षेत्र ही व्यवहार का क्षेत्र है । निश्चय या पारमार्थिकदृष्टि से तो सारी नैतिकता ही व्यावहारिक-संकल्पना है। विशुद्ध पारमार्थिक या निश्चयदृष्टि से बन्धन और मुक्ति भी व्यावहारिक सत्य ही ठहरते हैं, क्योंकि बन्धन और मुक्ति - दोनों ही पर्यायदृष्टि के विषय हैं। तत्त्व (द्रव्य) दृष्टि से तो आत्मा शुद्ध ही है, अतः आत्मा को बन्धन में मानकर उसकी मुक्ति के निमित्त किया जाने वाला नैतिक- आचरण भी व्यवहार के क्षेत्र में ही सम्भव है। आचार्य कुन्दकुन्द ने स्पष्ट रूप से कहा है कि जीव कर्म से बद्ध है - यह व्यवहारनय का वचन है और जीव कर्म से अबद्ध है - यह शुद्ध निश्चयनय का कथन है । आत्मा का बन्धन और मुक्ति व्यवहार सत्य है, परमार्थ - दृष्टि से तो न बन्धन है और न मुक्ति है। आचार्य कहते हैं, 'आत्मा का बन्धन और अबन्धन - दोनों ही दृष्टिसापेक्ष हैं, नयपक्ष है, परमतत्त्व समयसार (शुद्ध आत्मा) 'पक्षातिक्रांत' है। '31 इस प्रकार, जैन- दृष्टिकोण से समस्त नैतिक-आचरण व्यवहार के क्षेत्र में आता है। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि ज्ञान, दर्शन और चारित्र का समग्र साधना-मार्ग व्यवहारनय का विषय है । 32
न केवल जैन - परम्परा में, वरन् बौद्ध और वैदिक परम्पराओं में भी आचारदर्शन को व्यवहारदृष्टि का विषय माना गया है। बौद्ध-विचारणा में नागार्जुन का भी कथन है कि बुद्ध द्वारा प्रतिपादित चारों आर्य सत्य लोकसंवृति या व्यवहार ही हैं। 33 वैदिकपरम्परा में आचार्य गौडपाद ने भी परमतत्त्व को बन्धन और मुक्ति से निरपेक्ष माना है।
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