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________________ भारतीय आचारदर्शन में ज्ञान की विधाएँ 75 जाती हैं- (1) तात्त्विक-निश्चयदृष्टि, (2) आचारलक्षी-निश्चयदृष्टि और (3) व्यवहारदृष्टि। 9. आचारदर्शन के अध्ययन के विविध दृष्टिकोण आचरण के क्षेत्र में कर्त्तव्य एवं अकर्त्तव्य की विवेचना सहज नहीं है। गीता का कथन है कि कर्म, अकर्म और विकर्म का विषय अत्यन्त गहन है। बड़े-बड़े विद्वान् भी यहाँ विमोहित हो जाते हैं। 19 सबसे पहले विवाद इस प्रश्न को लेकर है कि कर्मों कीशुभाशुभता का निश्चय कर्ता के आन्तरिक अभिप्राय के आधार पर किया जाए या कर्ता के द्वारा आचरित कृत्य के आधार पर किया जाए? यदि कर्ता के आन्तरिक अभिप्राय को ही कृत्यों कीशुभाशुभता का मापक मान लिया जाए, तो भी यह प्रश्न उठता है कि कर्ता के अभिप्राय की शुभता याअशुभता का मापक तत्त्व क्या है ? क्या कर्ता के अभिप्राय निरपेक्षशुभ हैं या किसी अन्य की अपेक्षा से शुभ हैं ? यदि कर्ता के अभिप्राय को शुभत्व प्रदान करने वाला अन्य कोई तत्त्व है, तो वह क्या है ? इस प्रकार, आचारदर्शन के क्षेत्र में की जाने वाली आचरण की गहन विवेचना सरल एवं निरपेक्ष नहीं रह जाती। जान ड्यूई भी लिखते हैं, 'आचरण एक जटिल चीज है, इतनी जटिल कि बौद्धिक-दृष्टि से उसे किसी एक सिद्धान्त में बाँधने के हर प्रयत्न व्यर्थ हुए हैं। 20 । आचरण में मन, बुद्धि, विचार, अनुभूति, इच्छा, वासना, क्रिया आदि अनेक तथ्यों का सम्मिश्रण है। यह स्वयं में ही एक जटिलता है। जैन आचार्यों के अनुसार लोकव्यवहार निरपेक्ष नहीं है। वे कहते हैं कि बिना सापेक्षिकता के लोक-व्यवहार सम्भव नहीं होता है, अत: आचारदर्शन, जो कि आचरण के मूल्यांकन का प्रयास करता है, निरपेक्ष रूप लोक-व्यवहार के बारे में कोई विचार नहीं कर सकता। जैनाचार्यों का सदैव यही उद्घोष रहा है कि जटिलताका विवेचन बिना अपेक्षा के करना सम्भव नहीं है, इस प्रकार आचरण की विवेचना बिना विविध दृष्टिकोणों के करना सम्भव नहीं है। आचारदर्शन का सम्बन्ध आचरण के विभिन्न पक्षों से है, इसलिए यह आवश्यक है कि उन विविध पक्षों को सम्यक् प्रकार से समझने के लिए विविध दृष्टिकोणों के आधार पर उनका विचार किया जाए। आचारदर्शन के साध्य की दृष्टि से विचार किया जाए, तो हम पाते हैं कि जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का साध्य निर्वाण है। इसे परमार्थ, परममूल्य और तात्त्विकसत्ता एवं पूर्णता भी कहा जा सकता है। उसके स्वरूप का निर्वचन भी एक जटिल समस्या है। भाषा, वाणी और तर्क उसे ग्रहण करने में अपूर्ण हैं। भाषा अस्ति और नास्ति की कोटियों से सीमित है, वाणी की अर्थ-व्यंजना भाषा पर आधारित है और बुद्धि विचार की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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