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________________ 74 भारतीय आचारदर्शन एक तुलनात्मक अध्ययन जैन-दार्शनिकों ने ज्ञान की सापेक्षता को स्वीकार किया है और इसलिए उनका कहना है कि ज्ञान का प्रत्येक रूप, चाहे वह व्यावहारिक या लौकिक, अथवा नैश्चयिक या तात्विक, अपने-अपने दृष्टिकोणों के आधार पर सत्य ही होता है। उसमें किसी को भी असत्य नहीं कहा जा सकता। 7. जैन-दर्शन में ज्ञान की सत्यता का आधार जैसा कि हमने देखा, जैन-आचारदर्शन ज्ञान की सापेक्षिकता को स्वीकार करता है। सापेक्षिक ज्ञान की सत्यता स्व-अपेक्षा से ही होती है, पर-अपेक्षा से नहीं। प्रत्येक दृष्टिकोण के आधार पर अवतरित सत्य उसी दृष्टिकोण की अपेक्षा से ही सत्य होता है। आचार्य समन्तभद्र ने कहा है कि जो दृष्टिकोण या नय परस्पर एक-दूसरे का विरोध करते हैं, वे स्वपर-प्रणाशीदुर्नय कहे जाते हैं। इसके विपरीत, जो नय एक-दूसरे के पूरक और सहयोगी हैं, वे स्व-परोपकारी सुनय कहे जाते हैं। अपेक्षा के अभाव में प्रत्येक दृष्टिकोण असत्य बन जाता है, क्योंकि वह दूसरे का बाध करता है, जबकि सापेक्ष होकर प्रत्येक नय सत्य बन जाता है। ज्ञान की सत्यता और असत्यता अपेक्षा पर निर्भर मानी गई है। वह जिस अपेक्षा के आधार पर निर्मित है, उसी अपेक्षा की दृष्टि से सत्य होता है और अन्य अपेक्षाओं या दृष्टियों से वही असत्य हो जाता है। प्रत्येक दृष्टिकोण स्व-अपेक्षा से सत्य होता है और पर-अपेक्षा से असत्य। 8. आचारदर्शन की अध्ययनविधियाँ आचारदर्शन में निश्चयदृष्टि और व्यवहारदृष्टि के रूप में दो अध्ययनविधियाँ स्वीकृत हैं। आचार्य कुन्दकुन्द ने एक और दृष्टिकोण का प्रतिपादन किया है, जिसे उन्होंने अशुद्ध निश्चयनय कहा है। वस्तुत:, शुद्ध निश्चयनय द्रव्यार्थिक-दृष्टि है, अत: वह चाहे नैतिक साध्य के स्वरूप का संकेत करती हो, लेकिन उसे आचारदर्शन की विधि नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उसमें परिवर्तन एवं भेद को कोई स्थान नहीं, जबकि नैतिकता के लिए दोनों आवश्यक हैं। इस प्रकार, आचारदर्शन के अध्ययन की दो ही दृष्टियों शेष रहती हैं, जिन्हें हम आचारलक्षी निश्चयनय (अशुद्ध निश्चयनय) और व्यवहारनय कह सकते हैं। यद्यपि तात्त्विक-निश्चयदृष्टि का भी अपना स्थान है, उसे नैतिक साध्य का स्वरूप बताने वाली दृष्टि कहा जा सकता है। इस प्रकार, हम देखते हैं कि तात्विक-निश्चयदृष्टि नैतिक साध्य को तथा आचारलक्षी-निश्चयदृष्टि (अशुद्ध निश्चयनय) नैतिकता के आन्तरिक पक्ष को और व्यवहारदृष्टि नैतिकता के बाह्यस्वरूप को प्रकट करती है। इस प्रकार, आचारदर्शन के अध्ययन की तीन विधियाँ हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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