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________________ भारतीय आचारदर्शन में ज्ञान की विधाएँ हैं। भले ही इनमें नामों की भिन्नता हो, लेकिन उनके विचार इन्हीं दो दृष्टिकोणों की ओर संकेत करते हैं। 6. जैन, बौद्ध और वैदिक-परम्पराओं में दृष्टिकोणों का विचार-भेद यद्यपि तुलनात्मक दृष्टि से विचार करते हुए हमने बौद्ध, वैदिक एवं पाश्चात्यपरम्परा के साथ जैन-परम्परा के साम्य को देखा, तथापि यह स्मरण रखना चाहिए कि उनमें कुछ विचार-भेद भी हैं। प्रथम तो शंकर के प्रतिभासिक, चन्द्रकीर्ति की मिथ्यासंवृति और विज्ञानवाद के परिकल्पित दृष्टिकोणों के समान किसी दृष्टिकोण का प्रतिपादन जैन-परम्परा में उपलब्य नहीं है। इसी प्रकार, आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में प्रस्तुत अशुद्धनिश्चयनय का विचार, जिसे व्यवहार और परमार्थ की मध्यस्थिति का द्योतक माना जा सकता है, बौद्ध और वैदिक-परम्परा में अनुपलब्ध है। इस सन्दर्भ में एक और महत्वपूर्ण अन्तर जैन और जैनेतर परम्पराओं में यह है कि बौद्ध-शून्यवाद और विज्ञानवाद तथा शांकरवेदान्त में व्यवहारदृष्टि या लोकसंवृति को परमार्थ की अपेक्षा निम्नस्तरीय माना गया है और उससे उपलब्ध होने वाले ज्ञान को भी वास्तविक रूप में सत्य नहीं माना गया है, जबकि जैन-दर्शन के अनुसार व्यवहार और निश्चय, अथवा पर्यायदृष्टि और द्रव्यदृष्टि स्वस्थानों की अपेक्षासे समस्तरीय मानी गई है। वस्तुत:, उनमें कोई तुलना करना ही अनुचित है, क्योंकि दोनों एक-दूसरे से भिन्न हैं, साथ ही जैन-विचारणा के अनुसार व्यवहारनय और निश्चयनयदोनों ही सापेक्ष हैं, निरपेक्ष नहीं, जबकि शून्यवाद और शांकरवेदान्त के अनुसार लोकसंवृतिसत्य या व्यवहारदृष्टि ही सापेक्ष है, परमार्थदृष्टि को उनमें निरपेक्ष माना गया है। जैन-विचारणा के अनुसार सभी ज्ञान सापेक्ष हैं। तत्त्व की स्वसत्ता चाहे निरपेक्ष हो, लेकिन उसका ज्ञान, चाहे वह व्यावहारिक ज्ञान हो या नैश्चयिक, सापेक्ष ही होता है। नयचक्र में कहा गया है कि वस्तुगत धर्म भले ही नय-विषयक हो या प्रमाण-विषयक, वे परस्पर सापेक्ष ही होते हैं। सापेक्षता ही तत्त्व है और निरपेक्षताअतत्त्व।” यद्यपि हम नयचक्र के प्रणेता के इस विचार से सहमत नहीं हैं कि तत्त्व की सत्ता सापेक्ष है, क्योंकि ऐसा मानने पर तो जैनदर्शन शून्यवाद ही बन जाएगा। हमारा अभिप्राय तो इतना ही है कि तत्त्व की सत्ता चाहे अपने-आप में निरपेक्ष हो, लेकिन उसके सन्दर्भ में होने वाला ज्ञान सदैव सापेक्ष होता है, क्योंकि ज्ञान के साधन इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि निरपेक्ष नहीं हैं। इतना ही नहीं, अपरोक्षानुभूति में भीजो वस्तुविषयक ज्ञान होता है, वह भी दृष्टिकोण से निरपेक्ष नहीं हो सकता। ज्ञान और दृष्टिकोण-ये दोनो साथ-साथ चलते हैं और इसलिए साराही ज्ञान सापेक्ष होता है। जैनदर्शन में एक भी सूत्र और अर्थ ऐसा नहीं है जो नयशून्य (दृष्टिकोणरहित) हो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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