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भारतीय आचारदर्शन एक तुलनात्मक अध्ययन
माध्यमिककारिका में कहा गया है कि बुद्ध ने दो सत्यों का उपदेश दिया है- (1) लोकसंवृत्तिसत्य और (2) परमार्थ-सत्य। चन्द्रकीर्ति ने लोकसंवृति-सत्य के भी मिथ्यासंवृति और तथ्यसंवृति- ये दो भेद किए हैं। इस प्रकार, शून्यवाद में मिथ्यासंवृति , तथ्यसंवृति और परमार्थ-तीन दृष्टिकोण माने गए हैं। विज्ञानवाद में भी तीन दृष्टिकोणों का प्रतिपादन है, जिन्हें क्रमश: (1) परिकल्पित, (2) परतन्त्र और (3) परिनिष्पन्न-कहा गया है। विज्ञानवाद का परतन्त्र जैनदर्शन के परोक्षज्ञान के निकट है। यहाँ उसे परतन्त्र इसलिए कहा गया है कि वह ज्ञान, मन और इन्द्रियों के अधीन होता है। 4. वैदिक-परम्परा में ज्ञान की विधाएँ
आचार्य शंकर ने अपने पूर्ववर्ती जैन और बौद्ध-परम्पराओं कीशैली का अनुसरण करते हुए तीन दृष्टिकोणों का प्रतिपादन किया है, जिन्हें वे क्रमश: (1) प्रतिभासिक सत्य, (2) व्यावहारिक सत्य और (3) पारमार्थिक सत्य कहते हैं।'
तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर तो जैन-परम्परा के निश्चयनय और व्यवहारनय, पर्यायार्थिकनय और द्रव्यार्थिकनय, अथवा भूतार्थनय और अभूतार्थनय बौद्ध-परम्परा के नीतार्थनय और नेय्यार्थनय के समान हैं। नीतार्थनय निश्चयनय, द्रव्यार्थिकनय या अभूतार्थनय के समान है और नेय्यार्थनय व्यवहारनय, पर्यायार्थिकनय या भूतार्थनय के समान है। जैनपरम्परा के निश्चयनय को विज्ञानवादियों ने परिनिष्पन्न और शून्यवादियों ने परमार्थ कहा है,
और व्यवहारनय को विज्ञानवादियों ने परतन्त्र और शून्यवादियों ने लोकसंवृति कहा है। जैनपरम्परा का निश्चयनय शंकर का पारमार्थिक सत्य है और व्यवहारनय व्यावहारिक सत्य है। 5. पाश्चात्य-परम्परा में ज्ञान की विधाएँ
न केवल भारतीय-दर्शनों में, वरन् पाश्चात्य-दर्शनों में भी प्रमुख रूप से व्यवहार और परमार्थ के दृष्टिकोण स्वीकृत किए जाते रहे हैं। डॉ. चन्द्रधर शर्मा लिखते हैं कि (व्यवहार और परमार्थ दृष्टिकोणों का) यह अन्तर सदैव ही रखा जाता रहा है। विश्व के सभी महान् दार्शनिकों ने इसे किसी न किसी रूप में स्वीकार किया है। हेराक्लिटस के Kato और Ano, पारमेनीडीज़ के मत (Opinion) और सत्य (Truth), सुकरात के रूप और आकार (World and Form), प्लेटो के संवेदना (Sense) और प्रत्यय (Idea), अरस्तू के पदार्थ (Matter) और चालक (Mover), स्पिनोजा के द्रव्य (Substance) और पर्याय (Modes), कांट के प्रपंच (Phenomenal) और तत्त्व, हेगल के विपर्यय और निरपेक्ष तथा ब्रैडले के आभास (Appearance) और सत् (Reality) किसी न किसी रूप में उसी व्यवहार और परमार्थ की धारणा को स्पष्ट करते
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