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________________ भारतीय आचारदर्शन एक तुलनात्मक अध्ययन विधाओं से ऊपर उठने में असमर्थ है, अत: नैतिक साध्य के ज्ञान के साधन भी सापेक्ष हैं और इसलिए बिना अपेक्षाओं के उसका ज्ञान एवं निर्वचन सम्भव नहीं होता है। उसके सम्बन्ध जो कुछ भी कहा जाता है, वह मात्र सापेक्ष कथन ही होता है। वह तो परमार्थ, सत् या पूर्णता है। कोई भी दृष्टिकोण सीमित और अपूर्ण होता है, उसका निर्वचन कैसे हो सकता है ? भाषा, विचार एवं दृष्टि - सभी सीमित हैं, अपूर्ण हैं; और अपूर्ण में पूर्ण होने का निर्वचन करने एवं पूर्ण को जानने की क्षमता ही कहाँ ? लेकिन, यदि हम यही मानकर चलें कि अपूर्ण भाषा, विचार और दृष्टि परमसाध्य को अभिव्यक्त करने में असमर्थ हैं, तो फिर नैतिक आदर्श का बोध सम्भव नहीं होगा और उसके अभाव में नैतिक जीवन की व्याख्या सम्भव नहीं होगी। वास्तविकता यह है कि अपूर्ण बुद्धि या विचार, भाषा और दृष्टि, सत् या नैतिक आदर्श के रूप में स्वीकृत निर्वाण की अवस्था के समग्र स्वरूप या अनन्त अपेक्षाओं का एकसाथ बोध कराने में असमर्थ हैं, लेकिन वे उसके एकांश का ग्रहण और बोध करा सकते हैं। जैन दर्शन तत्त्व की अज्ञेयता में विश्वास नहीं करता, लेकिन साथ ही वह तत्त्व के निरपेक्ष ज्ञान को भी सम्भव नहीं मानता। जैन दर्शन की दृष्टि में सत् अनन्त विधाओं से युक्त है और इसलिए उसके अनन्त पक्षों की सापेक्ष रूप में ही सम्यक् व्याख्या की जा सकती है। आचारदर्शन आदर्श के रूप में जिस तात्त्विक स्वरूप की उपलब्धि चाहता है, वह दृष्टिकोणों या नयों के द्वारा प्राप्त नहीं होती, लेकिन उन विभिन्न दृष्टिकोणों या नयों से प्रत्युत्पन्न विकल्पों के समस्त जाल के विलय होने पर शुद्ध निर्विकल्प समाधि की अवस्था में प्राप्त होती है। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि आत्मा के विषय में सारे ही नय (दृष्टिकोण) पक्षपात से युक्त होते हैं, 24 अतः विभिन्न नयों के द्वारा आत्मा का ग्रहण सम्भव नहीं है। आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं, "जो नयों अथवा पक्षपातों (दृष्टिकोणों व्यामोह) से ऊपर उठ जाता है; जिसका चित्त विकल्प - जाल (ऐसा है, ऐसा नहीं है) से रहित, शान्त हो चुका है; जो मात्र अपने स्वस्वरूप में ही निवास करता है, वही इस अमृततत्त्व का पान करता है | "25 बौद्ध एवं वैदिक आचार- दर्शनों में भी परमतत्त्व या निर्वाण की प्राप्ति निर्विकल्प समाधि-दशा में ही मानी गई है। यदि नैतिक और आध्यात्मिक-साधना का लक्ष्य विकल्पों या विचारों की विधाओं से ऊपर उठना है, तो फिर आचारदर्शन के क्षेत्र में नयों या दृष्टिकोणों के निरूपण की क्या आवश्यकता है ? इस प्रश्न का समुचित उत्तर आचार्य शंकर बहुत पहले ही दे चुके हैं। यद्यपि नैतिक साधना की पूर्णता विकल्पों, नयपक्षों एवं दृष्टिकोणों से ऊपर उठने में ही है, तथापि इन नयपक्षों से ऊपर उठना भी उनके ही सहारे सम्भव है । व्यवहार के द्वारा परमार्थ का ज्ञान होता है और उस परमार्थ के द्वारा निर्विकल्प सत्ता या आत्मतत्त्व का 76 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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