________________
भारतीय आचारदर्शन का स्वरूप
कि अपने आदर्श को पाने के लिए मनुष्य को नैतिकता से परे धर्म की ओर जाना होता है, जहाँ उसका आदर्श यथार्थ के रूप में परिणत हो जाता है। उनकी दृष्टि में नैतिक होने के लिए अतिनैतिक होना भी आवश्यक है। वे लिखते हैं कि नैतिकता का विचार हमें उससे परे ले जाता है। 74 जैन - परम्परा के अनुसार अच्छाई या बुराई, अथवा पुण्य या पाप - दोनों ही बन्धन हैं और मोक्ष के साध्य की उपलब्धि के लिए इनसे ऊपर उठना आवश्यक है। बौद्धपरम्परा में भी आदर्श व्यक्तित्व को पुण्य और पाप से ऊपर माना गया है। इस सम्बन्ध में विशेष विचार अगले अध्यायों में किया गया है, अतः यहाँ विस्तार में जाना आवश्यक नहीं । वस्तुतः, पुण्य और पाप, शुभ और अशुभ या अच्छाई और बुराई हमारे अहंकार, कर्तृत्वभाव या आसक्ति (राग) का परिणाम होते हैं । जहाँ राग होता है, वहाँ द्वेष की उपस्थिति भी रहती है और यही कारण है कि पुण्य के साथ-साथ पाप का या शुभ के साथ-साथ अशुभ का अस्तित्व भी बना रहता है । द्वेष या अशुभ के पूर्ण प्रहाण पर राग का अस्तित्व भी नहीं रहता और ऐसी स्थिति में अपरिहार्य रूप से व्यक्ति अच्छाई और बुराई के नैतिक अन्तर से ऊपर उठ जाता है। यद्यपि इस सबका अर्थ यह नहीं है कि भारतीय परम्परा में शुभ या अच्छाई अस्वीकृत रही है, वरन् केवल यही बताया गया है कि पूर्णता की उपलब्धि के लिए, संघर्षमय जीवन से ऊपर उठने के लिए, इनसे ऊपर उठना आवश्यक है। नैतिक- पूर्णता को प्राप्त करने के लिए नैतिकता के क्षेत्र का अतिक्रमण आवश्यक है। भारतीय- आचारदर्शन इसी महत्वपूर्ण तथ्य को दृष्टिगत रखते हुए यह मानते हैं कि नैतिक जीवन का लक्ष्य नैतिकता के क्षेत्र से परे है। अतिनैतिक होकर हो नैतिक- पूर्णता को प्राप्त किया जा सकता है।
इस प्रकार, श्वेट्जर आदि पाश्चात्य विचारकों के द्वारा भारतीय नैतिक चिन्तन पर सहृदयता एवं सहानुभूति के अभाव के जो आक्षेप लगाए गए, वे या तो भारतीय नैतिकता स्वरूप को बिना सम्यक् प्रकार से समझे लगाए गए हैं या उनमें केवल आलोचनात्मक दृष्टिही प्रमुख रही है। जिस संस्कृति ने 'मेरे' और 'पराए' के विचार को ही हृदय की संकुचितता का द्योतक माना हो, जिसने 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की उदार अवधारणा प्रस्तुत की हो, जिसने प्रतिपल -
Jain Education International
-
सर्वेऽत्र सुखिन: सन्तु, सर्वे सन्तु निरामयाः । सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखमाप्नुयात् ।।
का गान गाया हो, जिसमें बोधिसत्व, तीर्थंकर और प्रभु के अवतरण का आदर्श लोकमंगल की उदात्त भावना से परिपूर्ण हो, उसके हृदय को कैसे रिक्त कहा जा सकता है।
प्रस्तुत अध्ययन में हमने इस बात को अधिक स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि भारतीय नैतिक-चिन्तन ओर विशेष रूप से जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शन किसी
For Private & Personal Use Only
65
www.jainelibrary.org