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भारतीय आचारदर्शन एक तुलनात्मक अध्ययन
संन्यास-धर्म भी जीवन-क्षेत्र से पलायन नहीं है, वरन् स्वार्थों से ऊपर उठने का प्रयास है, अत: भारतीय चिन्तन पर पलायनवादिता का यह आक्षेप उचित नहीं है। संन्यास जीवन
और जगत् से पलायन नहीं, वरन् एक उच्च व्यक्तित्व और उच्च जगत् का निर्माण है। वह वासनाओं और क्षुद्रताओं से ऊपर उठकर निष्काम एवं विशुद्ध प्रेममय जीवन जीने की एक कला है। वासनाओं एवं क्षुद्रताओं से ऊपर उठने के प्रयास को पलायन नहीं कहा जा सकता। भारतीय-परम्परा यह स्वीकार करती है कि हमें जीवन की वर्तमान अपूर्णताओं और क्षुद्रताओं से ऊपर उठना है, लेकिन इसका अर्थ जीवन से इन्कार नहीं है, वरन् जीवन और शरीर तो उसके साधन माने गए हैं। डॉ. राधाकृष्णन् लिखते हैं कि हिन्दू-दृष्टिकोण की विशेष बात यह है कि वह मन, जीवन और शरीर के विकास को जीवन का प्राथमिक उद्देश्य मानता है। शारीरिक-स्वास्थ्य और स्फूर्ति सजीव शक्ति और मानसिक सन्तुष्टि के लिए अनिवार्य है, किन्तु उससे भी अधिक उसकी आवश्यकता इसलिए है कि शरीर उन मानुषिककार्यों को करने की सामर्थ्य रखता है, जिनका उद्देश्य मनुष्य में ईश्वर की शोध और अभिव्यक्ति करना होता है। हम ससीम के बन्धन में पड़े हुए हैं, तथापि हम असीम की आकांक्षा करते हैं। जन्म और पुनर्जन्म की लम्बी श्रृंखला इस अर्थ में तो भारी बन्धन है, परन्तु दूसरे अर्थ में वह आत्मज्ञान का साधन भी है। भौतिक प्राणी होते हुए भी आध्यात्मिक प्राणी के रूप में अपने को विकसित कर लेना मानवीय विकास की उच्चतम उपलब्धि है। नश्वर शरीर से सम्बद्ध होते हुए भी आत्मा की अमरता में निवास करना इसी को कहते हैं। वस्तुत:, एक उच्च आत्मा के निर्माण के लिए, जीवन की अपूर्णताओं और क्षुद्रताओं से ऊपर उठने के लिए, यदि निम्न आत्मा या वासनामय जीवन का त्याग आवश्यक हो, तो वह न तो जीवन से पलायन है और न इनकार ही। न केवल वैदिक-परम्परा में, वरन् जैन और बौद्धपरम्पराओं में भी यह दृष्टिकोण स्वीकृत है। ___डॉ. श्वेट्जर का सातवाँ आक्षेप यह है कि भारतीय-परम्परा में आदर्श व्यक्ति को अच्छाई और बुराई ने नैतिक अन्तर से परे माना गया है। यद्यपि यह सत्य है कि जैन, बौद्ध और वैदिक- तीनों ही परम्पराओं में परमसाध्य शुभ और अशुभ या अच्छाई और बुराई के स्तरों से ऊपर उठना माना गया है, लेकिन नैतिक-पूर्णता के अशुभ के अस्तित्व में ही शुभ का अर्थ रहा हुआ है। शुभ की सत्ता तभी तक है, जब तक कि अशुभ है, लेकिन जब तक अशुभ की उपस्थिति है, नैतिक-पूर्णता सम्भव नहीं, अत: नैतिक-पूर्णता के लिए शुभ और अशुभ-दोनों से ही ऊपर उठना आवश्यक है। नैतिक-जीवन शुभ और अशुभ के संघर्ष की अवस्था है, लेकिन इस संघर्ष से ऊपर उठने के लिए शुभ और अशुभ की सीमाओं का अतिक्रमणभी आवश्यक है। पाश्चात्य-विचारक ड्रडले ने इसे विस्तारपूर्वक स्पष्ट किया है
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