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भारतीय आचारदर्शन का स्वरूप
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शून्यवाद और विज्ञानवाद के अतिरिक्त सभी ने जीवन और जगत् की वस्तुगत वास्तविक सत्ता को स्वीकार किया है। गीता की तत्त्वमीमांसा को भी मायावाद का समर्थक सिद्ध नहीं किया जा सकता, अत: यह आक्षेप उन पर लागू ही नहीं होता।
डॉ. श्वेट्जर का चौथा जाक्षेप है कि हिन्दूधर्म के अनुसार यह जगत् भगवान् की लीला है। वस्तुतः, यह सही है कि जगत् को भगवान् की लीला मानने पर नियतिवाद का सिद्धान्त आ जाता है और जिसमें नैतिक उत्तरदायित्व की व्याख्या सम्भव नहीं होती है, किन्तु जैन और बौद्ध-परम्पराएं इस बात को स्पष्ट रूप से अस्वीकार करती हैं कि जगत् ईश्वर की लीला है। यद्यपि गीता की विचारणा में इस सिद्धान्त का कुछ समर्थन और तज्जनित नियतिवाद के तत्त्व अवश्य उपस्थित हैं। इस प्रकार, हम देखते हैं कि जहाँ तक जैन और बौद्ध-परम्पराओं का प्रश्न है, यह आक्षेप उन पर लागू नहीं होता है।
डॉ.श्वेट्जर का पाँचवाँ आक्षेप है कि भारतीय-परम्परा में मोक्ष का साधन ज्ञान या आत्म-साक्षात्कार है। यह बात नैतिक-विकास से भिन्न है, इसलिए हिन्दू-धर्म आचार या नीति-विषयक नहीं है। उनके इस आक्षेप में उनकी एकांगी दृष्टि का ही परिचय मिलता है। प्रथम तो, सभी भारतीय आचारदर्शनों ने ज्ञान को ही एकमात्र मुक्ति का साधन माना हो, यह कहना यथार्थ नहीं है। भारतीयधर्मों में ज्ञान के साथ-साथ ही कर्म, ध्यान और भक्ति के तत्त्व भी उपस्थित हैं। जिन विचारकों ने ज्ञान को ही मोक्ष का साधन माना है, उन्होंने भी सदाचार या नैतिकता को अस्वीकार नहीं किया, वरन् सदाचार या नैतिक-जीवन को ज्ञानप्राप्ति के लिए अनिवार्य साधन बताया है। मात्र यही नहीं, जैन और बौद्ध-परम्पराओं ने अपने साधना-पथ में ज्ञान को जो स्थान दिया है, वही स्थान शील या आचरण को भी दिया है। उनकी साधना-पद्धति में ज्ञान के साथ-साथ आचरण का तत्त्व भी समाहित है, अत: उन्हें अनिवार्य रूप से आचारमार्गी दर्शन स्वीकार करना पड़ेगा। गीता के निष्काम कर्मयोगसिद्धान्त में भी ज्ञान के साथ-साथ आचरण का महत्व स्वीकार किया गया है, अत: यह मानना पड़ेगा कि भारतीय-परम्परा में आचारशास्त्र या नीति का महत्वपूर्ण स्थान है।
भारतीय-परम्परा पर छठवां आक्षेप पलायनवादिता का लगाया गया है, लेकिन यदि हम विचारपूर्वक देखें, तो भारतीय-दर्शन पलायनवादी सिद्ध नहीं होता। डॉ. श्वेट्जर का यह कहना नितान्त भ्रामक है कि भारतीय-परम्परा में मानव प्रयासों का लक्ष्य पलायन है, समन्वय या समझौता नहीं। भारतीय-परम्परा में समन्वय और सहयोग के तत्त्व प्रारम्भसे ही रहे हैं। क्या वेदों का संगच्छध्वं संवदध्वं' का गान, औपनिषदिक-ऋषियों की सह नाभवतु सह नौ भुनक्तु सह वीर्यं करवाव हे' की मंगलकामना तथा बुद्ध और महावीर की परम्परा का संघीय जीवन सामाजिक क्षेत्र से पलायनवादिता है ? भारतीय-परम्परा का
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