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________________ भारतीय आचारदर्शन एक तुलनात्मक अध्ययन अधीन है, तो नैतिक सद्गुणों को और आत्मत्याग एवं आत्मबलिदान के प्रत्ययों को कोई प्रोत्साहन नहीं मिल सकता। डॉ. राधाकृष्णन् के शब्दों में, भौतिक आधार अनिवार्य होते हुए भी वह वास्तविक जीवनयापन के लिए बहुत ही संकुचित प्रतीत होता है। मनुष्य क्या केवल शरीर है, जिसे खिलाया पिलाया, ओढ़ाया - पहनाया और आवासित किया जा सकता है, या वह आत्मा भी है, जिसकी कुछ उच्च आकांक्षाएँ हैं? जिन लोगों को भौतिक सभ्यता की नियामतें, सारी सुख-सुविधाएँ प्राप्त हैं, उन लोगों को भी जब हम हताश और कुण्ठित देखते हैं, तब यह समझ में आ जाता है कि मनुष्य केवल रोटी या भावनात्मक उत्तेजना पर ही जीवित नहीं रह सकता। यदि शुभेच्छा, विशुद्ध प्रेम और वैराग्य हमारे आदर्श हैं, तो हमारी आचारनीति की जड़ पारलौकिकता की भावना में होनी चाहिए ।" 62 वस्तुतः, आचारदर्शन एक आदर्शात्मक विज्ञान है। यदि हम 'जो हैं' उसी से सन्तुष्ट हैं, तो हमें ' जो होना चाहिए' - इसका कोई अर्थ हमारे लिए नहीं रह जाएगा। दृश्य जगत् से परे भी कोई जीवन और जगत् है, यह आस्था ही हमें नैतिक- पूर्णता की दिशा में ले जा सकती है। भारतीय- आचारदर्शनों ने पारलौकिकता एवं आध्यात्मिकता को नैतिक - जीवन लिए जो स्वीकृति दी है, उसके पीछे उनकी यही गहन दृष्टि रही है कि हमारा परमश्रेय केवल इसी जगत् और जीवन तक सीमित नहीं है। हमें वर्तमान जीवन की अपूर्णताओं और सीमितताओं से ऊपर उठकर किसी साध्य को प्राप्त करना है । डॉ. श्वेट्जर का तीसरा आक्षेप मायावाद से सम्बन्धित है । उन्होंने मायावाद के सिद्धान्त को जीवन और जगत् का निषेधक मान लिया है। उनकी दृष्टि में मायावाद का सिद्धान्त जीवन और जगत् को भ्रम या मरीचिका मानता है। वे लिखते हैं कि एक ऐसे संसार जिसका कोई अर्थ नहीं है, मनुष्य नैतिक कार्यों में नहीं जुट सकता। माया के सिद्धान्त में विश्वास करने वाले व्यक्ति के लिए आचार नीति का केवल सापेक्षिक महत्व ही हो सकता है। 72 वस्तुत:, डॉ. श्वेट्जर की यह भ्रान्त धारणा कि मायावाद जीवन और जगत् का निषेधक है, माया के सही अर्थ को नहीं समझ पाने के कारण उत्पन्न हुई है। वे प्रातिभासिक सत्य और व्यावहारिक सत्य के अन्तर को नहीं समझ पाए हैं। डॉ. राधाकृष्णन ने अपने ग्रन्थ 'हिन्दुओं की जीवनदृष्टि' तथा 'प्राच्यधर्म और पाश्चात्य विचार' में इसे विस्तारपूर्वक स्पष्ट किया है कि मायावाद का सिद्धान्त जीवन और जगत् का निषेधक नहीं है। दूसरे, शंकर का मायावाद समग्र भारतीय-दर्शन का प्रतिनिधि नहीं है। विस्तारभय से यहाँ उस समग्र चर्चा में जाना सम्भव नहीं है। जहाँ तक जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का प्रश्न है, वे मायावाद के सिद्धान्त के समर्थक नहीं माने जा सकते। जैन दर्शन तो एक यथार्थवादी दर्शन है और इसलिए उसमें मायावाद के सिद्धान्त का कोई स्थान ही नहीं है। बौद्ध परम्परा में भी - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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