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भारतीय आचारदर्शन का स्वरूप
नैतिक-आचरण न तो इस जीवन में सुख-साधनों की उपलब्धि के लिए करना चाहिए और न पारलौकिक-जीवन के लिए। जैन-आचारदर्शन में सम्यग्दृष्टि या ज्ञानी की पहचान ही यह मानी गई है कि जो न भूत की चिन्ता करता है और न ही भविष्य की आकांक्षा, वही वास्तविक ज्ञानी है। गीता में इसी दृष्टिकोण को अभिव्यक्त करते हुए कहा गया है कि पण्डितजन भूत और भविष्य की चिन्ता नहीं करते हुए, जो भी कर्त्तव्य सामने उपस्थित होता है, उसका पालन करते हैं। 67 बुद्ध का कथन है कि बीत हए काशोक नहीं करते, आने वाले पर मन्सूबे नहीं बाँधते, जो उपस्थित है, उसी से गुजारा करते हैं, वे शान्त भिक्षु सदैव प्रसन्न रहते हैं।68 बुद्ध की दृष्टि में सच्चासाधकन लोक की आशा करता है और न परलोक की।69
वस्तुत:, जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों ने नैतिकता अथवाधर्म को प्रलोभन एवं भय के आधार पर खड़ा करना कभी भी उचित नहीं समझा। उनकी दृष्टि से जो आचरण परलोक की अपेक्षा से किया जाता है, वह बन्धनकारी कारण माना गया है। जैन, बौद्ध
और गीता के आचारदर्शनों में स्वर्ग और नरक के जो पारलौकिक प्रत्यय उपस्थित किए हैं, उनका सम्बन्ध जनसाधारण से है। जो व्यक्ति बौद्धिक दृष्टि से परिपक्व नहीं हैं और जिनका जीवन भय और प्रलोभन के आधारों पर ही चल रहा है, उन्हें अनैतिक-जीवनसे विरत करने
और नैतिक-जीवन के प्रति आकर्षित करने के लिए यद्यपि स्वर्ग का प्रलोभन और नरक का भय उपस्थित किया गया है, लेकिन यह भारतीय नैतिकता की अन्तिम दृष्टि नहीं है। भक्तों का श्रेणी-विभाजन करते हुए गीता यह स्पष्ट कर देती है कि जो साधक भय या प्रलोभन के निमित्त से भक्ति (सदाचरण) करता है, वह निम्न कोटि का है। गीता में भक्तों की जो चार कोटियाँ कही गई हैं, उनमें आर्त और अर्थार्थी (स्वार्थी) भक्त, जो कि क्रमश: भय अथवा प्रलोभन के आधार पर नैतिक-जीवन जीते हैं, निम्न कोटि के माने गए हैं। बुद्ध ने श्रामण्य का फल इसी जीवन में माना है। अत:, भारतीय नैतिकता केवल परलोक के भय और प्रलोभनों पर खड़ी हुई नहीं है। परलोक के प्रलोभन एवं भय के आधार पर जिस नैतिकता का उपदेश दिया गया है, उसका सम्बन्ध मात्र अपरिपक्व साधकों से है।
डॉ.श्वेट्जर का यह दृष्टिकोणभ्रान्तिपूर्ण है किमानवतावादी नीति एवं पारलौकिकता परस्पर असंगत है। वस्तुतः, इस दृष्टिकोण के पीछे भौतिकवादी धारणा ही अधिक प्रबल दिखाई देती है। मानवतावादी दृष्टिकोण ऐहिक-जीवन तक ही अपना ध्यान सीमित रखना चाहता है। उसके अनुसार, प्रकृति के सिद्धान्तों के अनुरूप ही अपने आचरण को ढाल लेना ही मनुष्य का नैतिक कर्त्तव्य है। मानवतावादी आचारदर्शन मनुष्य को एक मनोभौतिक एवं सामाजिक प्राणी के रूप में देखता है। उसकी दृष्टि में नीतिशास्त्र या तो समाजशास्त्र की एक शाखा है या मनोविज्ञान का एक विभाग, लेकिन यदि मनुष्य प्राकृतिक नियमों के
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