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________________ 60 भारतीय आचारदर्शन एक तुलनात्मक अध्ययन शरीर आक्रान्त न हो, जब तक इन्द्रियाँ स्वस्थ हैं, तभी तक धर्म का आचरण सम्भव है। उत्तराध्ययन में कहा गया है कि जब तक जीवन है, सद्गुणों की आराधना कर लेना चाहिए। हिन्दू-परम्परा में भी महावीर के इसी दृष्टिकोण को समर्थन प्राप्त है। उसमें कहा गयाहै कि जब तक शरीर स्वस्थ है, वृद्धावस्था दूर है, सभी इन्द्रियाँ अपने-अपने व्यापार में संलग्न हैं, जब तक आयुष्य का क्षय नहीं होता, तब तक विद्वान् को आत्म-लाभ (परमश्रेय) के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए।65 यदि जीवन-साध्य की उपलब्धि जीवन-प्रक्रिया में निहित है, तो फिर जैन और वैदिक-परम्परा के आचारदर्शनों को जीवन का निषेधक कैसे माना जा सकता है। पूर्णता की दिशा में गति जीवन के विकास में है, उसके निषेध में नहीं। जीवन के एक छोर पर अपूर्णता है, सीमितता है और दूसरे छोर पर पूर्णता और अनन्तताहै। जीवन इन दोनों छोरों के मध्य स्थित है। जीवन का काम है इन अपूर्णता से पूर्णता की ओर, ससीम में असीम की ओर बढ़ना। भारतीय-परम्परा में जीवन की जिस पूर्णता को स्वीकार किया गया है, वह जीवन का निषेध नहीं है। वस्तुतः, जीवन की इस अपूर्णता के बोध में ही पूर्णता के लिए अभीप्सा जाग्रत होती है और उसी अभीप्सा से व्यक्ति पूर्णता की दिशा में प्रयत्न करता है। पूर्णता की अभीप्सा ही समग्र भारतीय नैतिक एवं आध्यात्मिक साधनाओं का सारतत्त्व है। पूर्णता का प्रत्यय जीवन का निषेधक नहीं, वरन् उसके विकास का ही परिचायक है। डॉ. श्वेट्जर का दूसरा आक्षेप है कि हिन्दू-विचारणा अनिवार्यत: पारलौकिक है और मानवतावादी आचार-नीति और पारलौकिकता (ये दोनों परस्पर असंगत हैं) भारतीय विचारणा के गहन अध्ययन पर आधारित प्रतीत नहीं होता है। यद्यपि भारतीय नैतिकचिन्तन में पारलौकिक-जीवन के सन्दर्भ में नैतिकता का विचार किया गया है और नैतिकआचरण का सम्बन्ध भूत और भावी जीवन से जोड़ा गया है (जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों में भी यही दृष्टिकोण अपनाया गया है) फिर भी यह मानना भ्रान्तिपूर्ण होगा कि भारतीय नैतिक-चिन्तन में वर्तमान जीवन की उपेक्षा की गई है। भारतीय चिन्तकों की दृष्टि वर्तमान जीवन के प्रति भी हमेशा सजग रही है। जैन और बौद्ध-दर्शनों के अहिंसा, अनाग्रह और अपरिग्रह के नैतिक सिद्धान्त पारलौकिक-जीवन की अपेक्षा वर्तमान जीवन एवं समाज-व्यवस्था से अधिक सम्बन्धित हैं। गीता जब वर्णाश्रम-धर्म और निष्काम कर्मयोग का उपदेश देती है, तो उसकी दृष्टि वर्तमान व्यावहारिक जीवन पर भी केन्द्रित है, ऐसा मानना भी युक्तिसंगत है। जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शन भी इस बात को अच्छी तरह समझते हैं कि स्वर्ग के प्रलोभन और नरक के भय पर खड़ी हुई नैतिकता नहीं है, वरन् वह नैतिकता का आभास-मात्र है। जैन-आगम दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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