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भारतीय आचारदर्शन का स्वरूप
तौर पर मनुष्य को संसार और जीवन के निषेध की ओर ले जाता है। 2. हिन्दू-विचारणा अनिवार्यत: पारलौकिक है और मानवतावादी आचारनीति और पारलौकिकता- ये दोनों परस्पर असंगत हैं। 3. 'माया'- सम्बन्धी हिन्दू-सिद्धान्त में जीवन को मरीचिका बतलाया गया है, इसमें एक त्रुटि यह है कि यह संसार और जीवन का निषेध करता है। फलतः, हिन्दू-विचारणा आचारनीतिपरक नहीं है। 4. विश्व की उत्पत्ति के सम्बन्ध में हिन्दू-धर्म, जो बड़ी से बड़ी बात कह सकता है, वह यह है कि यह भगवान् की लीला है। 5. मोक्ष का साधन ज्ञान या आत्मसाक्षात्कार है, यह बात नैतिक-विकास से भिन्न है, इसलिए हिन्दू-धर्म नीतिपरक नहीं है। 6. मानव-प्रयासों का लक्ष्य पलायन (निवृत्ति) है, समन्वय या समझौता नहीं। यह तो ससीम के बन्धनों से आत्माकी मुक्ति हुई, असीम के आत्मप्रकाश और उसके साधन के रूप में ससीम को परिवर्तित करने की बात इसमें नहीं आई। धर्म जीवन और उसकी समस्याओं से बचने की एक आड़ है, उससे सुखद भावी जीवन के लिए मनुष्य को कोई आशा नहीं बँधती। 7. हिन्दू-धर्म का आदर्श व्यक्ति अच्छाई और बुराई के नैतिक अन्तर से परे होता है। 8. हिन्दू-विचारणा आन्तरिक पूर्णता के लिए जिस शीलाचार पर जोर देती है, उसका सक्रिय आचारनीति और अपने पड़ोसी को सहृदय प्रेम देने की बात से विरोध है। 1 ।
डॉ. श्वेट्जर का यह प्रथम आक्षेप कि भारतीय-चिन्तन जीवन का निषेध सिखाता है, भ्रान्तिपूर्ण है। भारतीय-परम्परा जीवन का निषेध नहीं, वरन् जीवन की पूर्णता सिखाती है। डॉ. राधाकृष्णन् कहते हैं कि हिन्दू मतावलम्बी आध्यात्मिकता को मानव-प्रकृति का आधारभूत तत्त्व मानता है। आत्मिक साक्षात्कार जीवन की समस्याओं का कोई चमत्कारिक समाधान नहीं, अपितु जीवन को अपनी पूर्णता की ओर पहुँचाने का क्रमिक प्रयास है। भारतीय परम्परा में और विशेषकर जैन-परम्परा में मोक्ष की जो धारणा स्वीकार की गई है वह जीवन का निषेध नहीं, वरन् जीवन की पूर्णता है। चेतना की विभिन्न शक्तियों का पूर्ण विकास ही मोक्ष माना गया है। महावीर नैतिकता को जीवन-सापेक्ष मानते हैं। वह तो जीवन जीने की एक कला है, जीवन-प्रक्रिया से भिन्न उसका कोई अर्थ नहीं रहता। महावीर यह स्वीकार करते हैं कि धर्म का आचरण और नैतिक-पूर्णता की उपलब्धि तथा तजनित आध्यात्मिक आदर्श, अर्थात् मोक्ष की उपलब्धि सभी जीवन-प्रक्रिया में ही समाहित हैं। महावीर का स्पष्ट निर्देश है कि जब तक वृद्धावस्थाशरीरको जर्जरित नहीं करे, व्याधियों से
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